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सर्वदर््नसंयरहः
सपरिरि्ट श्रकाराः हिन्दीभाष्योपेतः भवष्यक्ार्:ः- प्रो° उमारांकरशरामो “षिः
एम० ए०, साहित्यरल्न लातकोत्तरसंरकतविभाग, पटना-विश्वविधालय
चौरव म्बा विद्याभवन.बाराणसी-१
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ऋषि
भरी उमा्चैकर चमा
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पूज्य पितामह स्वगि पण्डित स्वैदेवग्रत्ादशमां ( तं ० 28रर-२००६. वि० ) ^ जिनके श्रीचरणों मे मेरा शेथव-काल धर्म, संति ओर संसत का | त्रिधारा के भ्रवाह मं
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कशास्थान्नायपीठाधीश्चर जगद्ुरु्रीशंकराचायं श्री हद स्वामी ` महेश्वरानन्द् सरस्वती ( कवितािकिचकरव्तीं १० महादेवा )
जीके श्राशो्वचन
सवंदर्शनसंग्रह का प्रस्तुत हिन्दी-रूपान्तर मैने ध्यानपूरवंक प्रायः आय्योपान्त देखा है । आज जब किं हिन्दी राष्टूमाषा के पद पर समासीन है, तब यह बात आवश्यक ओर सामयिक है कि हिन्दी का साहित्य भी समृद्ध किया जाय। इसकी समृद्धि के लिए कतिपय विद्रान् मौलिक कृतियाँ प्रस्तुत कर रहे है ओर कतिपय उच्चतर भाषाओं मे वागबद्ध, परिष्कृत एवम् उच्च साहित्य का रूपान्तर प्रस्तुत कर रहे हैँ । प्रस्तुत ग्रन्थ दुसरे ढंग का एक सामयिक प्रयास है ।
मौलिक कतियो मे कृतिकार अपनी प्रतिभा ओर मेधा का मुक्त उज्ञास प्रदरित करता है, पर रूपान्तरात्मक तियो मे विद्रान् केखक दूसरों कौ प्रतिभा ओर मेधा का साक्षात्कार करने की क्षमता रखकर ही अपना उत्तरदायित्व निभा । सकता है । निष्कर्षं यह् हुआ कि मौलिक कृतिकार की भांति वह उतना मुक्त = नहीं श्ता । प्रस्तुत रूपान्तरणं एकं दाशेनिक कृति का रूपान्तरण है, जिसमें >+ विदान् खूपान्तरकार ने यह् शैली अपनाई है कि पहले मूल-पाठ का तटस्थ ढंग से रूपान्तर प्रस्तुत कर दिया जाय बौर उस संद में यदि कतिपय शब्द ` अतिरिक्त रला जाना आवश्यक है, तो उसे कोष्ठकान्तगंत रख दिया जाय । आज ८ ही क्या, सदा से यह ढंग समुचित ओर सर्वोत्तम समज्ञा जाता है । यही उचित | है कि पहले मूल-पाठ का तटस्थ रूपान्तर रख दिया जाय जिससे हिन्दी के माध्यम से मूल को समन्नने वाका बुद्धिमान् पाठक सीषे मुलरूप को जानल) इस स्तर पर पल्लवन करने मे यह भय रहता है कि कहीं रूपान्तरकार मूल का अनुवाद अपनी दृष्टि से अन्यथा न प्रस्तुत कर दे--ओौर यदि एेसा हृभा तौ बह लेखक ओर पाठक के बीच के माध्यस्थ्यं का उत्तरदायित्व ठीक से निबाहन
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अ, सकेगा । मने हषं है कि रूपान्तरकार ने प्रथम स्तर पर इस वजञानिक अथवा तटस्थ पद्धति का ग्रहण करके इस उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह करना चाहा है ।
सवंद्शंनसंग्रह एक दाशंनिक कृति है, इसङ्िए रूपान्तरकार-जैसे मध्यस्थ- जो मूल-लेखक ओर पाठक के वीच है का कायं केवल तटस्थतापूरवैक रूपान्तर प्रस्तुत कर देनाही पर्याप्त नहींहै। भारतीय दार्शनिक अपने विचारों को सहल्रान्द से चली आती हुई व्यवस्थित एवं पारिभाषिक पदावल्यों मे एक विरोष शेली से प्रस्तुत करते है, अतः उनके समस्त विचारों को आधुनिक पाठक के सामने हिन्दी-भाषा में रखते समय अनेकं प्रकार की सजगता आवश्यक है । पहली तो यह् किं भाषा हिन्दी की प्रकृति की हो, दूखरी पुराने आचार्या कौ बातों को जहां तक हो सके आधुनिक पाठक के अनुभव मे उतार देने का प्रयासं हो, तीसरी उखकी पारिभाषिकता का दुगं तोड़कर, उसमें प्रयुक्त संद्भ-शब्दो की व्याख्या करते हुए, शासनीय संकेतो का विस्तार देकर बात को सुलज्ञा रूप दिये जाने का प्रयत्न हो । छेखकं ने रूपान्तरण मे यह प्रयत्न किया है कि रूपान्तर कीभाषाकी प्रकृति अधिक से अधिक हिन्दीकोहो। शेष आवश्यकताओं की पूति के किए ही तटस्थ रूपान्तर के अनन्तर 'विशेष'-शीषंक से शाल्ञीय ग्रन्थियों को भी स्पष्ट करने का प्रयास हुआ है । यही नहीं, रूपान्तर के मध्यमेभीकही- ण कहीं लम्बे कोष्ठकं के अन्तगंत आवश्यक स्पष्टीकरणं हआ है । एसे प्रयासो में + - 2 कही-कहीं रूपान्त रकार कौ अनवधानता अवश्य दृष्टिगोचर होती है । उदाहरणार्थं _ ~ पृष्ठ सं° ११ पर मूल का रूपान्तर प्रस्तुत करते हुए यह कहा गया है--““ब्याि का अथं है दोनों भ्रकार की ( शंकित ओर नििचत } उपाधियों से रहित [ पक्ष गौर लिङ्गं का | सम्बन्ध ।'' यहां व्याप्ति को कोष्ठकान्तगंत पक्ष ओर लिङ्ख का सम्बन्ध कहना स्वंथा विचारणीय है । स्वयं ही रूपान्तरकार ने अनेक स्थलों पर व्याप्य एवं ग्यापक के सम्बन्ध को ही परम्परानुसार शाख्रीय ढंग से व्याप्ति बतलाया है ।
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का अधिकारपूवक रूपान्तरण ओर स्पष्टीकरण साधारण श्रम का कायं नहीं ठेसे बीहड क्षेत्र में संचरण करता हेज बौद्धिक यात्री कभी भटक जाय तो यह सहज संभव है । लेकिन इस प्रकार कौ भी स्थितियां क्राचित्कं ही है ।
आधुनिक ठंग के पाठकों को ध्यान मे अधिक रखा गया है जो सामयिक ओर समुचित भी हं । इसीलिए संस्कृत को पारिभाषिक पदावलियों के समानान्तर अगरेज में प्रचलित प्रयोग भी रख दिये गये है । उनकी प्र माणिकता कै किए ह्पान्तरकार स्वयम् उत्तरदायी हे । आधुनिक पाठकों की रुचि ओर आधुनिक चैकी पर भी ध्यान होने के कारण बीच-वीच मे किंसी-किसी दशंन की संक्षिप्त रेतिहासिक रूपरेखा भी प्रस्तुत कर दी गई है । परन्तु एसे प्रसंगो मँ भी कही कहीं अनवधानता है । उदाहरणाथं प° सं° ३२१ पर रोवागमों के बीच अहिवष्नय-संहिता को लिया गया दै--यह कहाँ तक ठीक है ? अहिवुश्न्य-संहिता पाञ्चरात्रागम के अन्तरगत हे ।
अन्तिम बात जो पुस्तक की उपादेयता के संबन्ध में कही जने कीटहै वह् यह किं ग्रन्थ के अन्त मे दाशंनिक पुस्तकों की एक वृहत् सुची संलग्न की गर् है । आधुनिक शोध-छातरों की दृष्टि से ठेसी सुचिथों का ब डा महत्व हीता है! सूची
४: _ एक सामान्य स्पे प्रस्तुत कर दी गई हो, एसी वात नहीं है । उसमे पुस्तक `“ ओर उसके रचयिता का नामतो हे ही, महत््वपूणं ओर उल्लेखनीय बात यह है करि उसमे जो पुस्तक जिख दर्शन की है, उस दरंन का भो सामने उल्लेख हे ।
इससे भी अधिक महच्वपूणं बात है कि आज का शोध-छात्र मल ग्रन्थकार का माणिक काल-ज्ञान चाहता है । रूपान्तरकार ने प्रत्येक कृति के सामने उस कृति का र्वना-काल भी दिया है । भारतीय मनीषियों की अन्तञ्॑खौ प्रवृत्ति तथा अपना परिचय देने की ओर से निरन्तर तटस्थता दिखाने का भाव उनके इतिवृत्त करे ज्ञान मे सदा बाधक रहा है । आधुनिक गवेषकों ने नये सिरे से इस पक्ष पर प्रकादा डाला ह । परन्तु उन सवो मे सभी ग्रन्थकारो को लेकर सर्वत्र मतेक्य नहीं > । रूपान्तरकार ने यदि यह बात ध्यान मे रखकर किसी प्रामाणिक इतिहास- कार की सहायता कालनिर्धारणमें ली ह तो तदर्थं वे प्रशंसा के पात्र है।
@ क, ट्स कृति में मेरे समक्ष रूपान्तरकार का अपना कोई निजी विचार या मौलिक स्थापना किवी के पक्ष-विपक्षमे नहींहै कि उसके विषयमे भीमे अपनी सम्मति प्रस्तुत करं । अतः रूपान्तरण के विषय मं जितने पल्लो से उसका मूल्याङ्कन किया जा सकता है, उतना संक्षेप मे ऊपर उपस्थापितं किया गया है । निश्चय ही इस महानु ओर सामयिक प्रयास के लिए श्रौ उमाशंकरश्मा “ऋषि” मेरे साधुवाद के पात्र है ।
धममंसंघ, कारी, ज्ये° शु० ४, २०२१ ( १३-६-१९६४ } ।
--महेश्वरानन्द सरस्वती
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प्रतपोटिक्छा
[ सर्वदर्शनसंग्रह का महत्व--दशंन की उत्पत्ति-भारतीय दक्षन ओर पाश्चाच्य दशंन-तच्वसात्तात्कार के साधन--प्रमाण- संख्या पर विचार--दार्शनिके के मेद्-श्रौत ओर तार्किक~- प्रमेय ईश्वर पर दर्शानो की मान्यता--जीव का निरूपण-संसार की व्याख्याये--विभिन्न दशनो म तखविचार- नास्तिक-दर्शन- रामानुज ओर मध्व--अनुमान के अवयव--अद्भेतवेदान्त--मोक्त का विचार-माधवाचायं का समय-- उपसंहार । |
माधवाचायं का सवदशंनसं ग्रह बहत दिनों से विद्वानों की दृष्टि में अत्यन्त महस्वपणं स्थान रखता आया है । यद्यपि इसके अनेकानेक संस्करण प्रकारित हो चुके है किन्तु अपनी राष्टृभाषा हिन्दी में कोई उत्तम अनुवाद तथा व्याख्या न देखकर प्रस्तुत संस्करण का प्रयास किया गया है । भारतीय ओर पाञ्चात्य विद्वानों के द्वारा किख गये आधुनिक ग्रन्थ यद्यपि दरंन के अध्ययन के लिए प्रचुर सामग्री प्रस्तुत करते है, किन्तु प्राचीन भारतीय परम्परा का निर्वाह करते हए माधवाचायं के द्वारा लिखे गये इस ग्रन्थ का अवमूल्यन किसी भी मूल्य पर नहीं किया जा खकता । जेसी पाण्डित्यपूणं ली मे माधवाचायं ने अपने काल मं प्रसिद्ध दर्शनों का संकलन करने का प्रयास किया ओर उनकी सर्वाङ्गपूणं विवेचना करने मेँ कुछ उठा नहीं रखा, उस तरह का संग्रह् अन्यत्र मिलना दुष्कर है । दशनो की विवेचना म उद्धरणों की पुष्कलता लेखक के अद्वितीय पाण्डित्य की विजय-पताका पक्ति-पंक्ति में प्रसारित कर रही टै। चाहे गम्भीर विवेचन हो, पूर्वपक्ष ओर सिद्धान्त में भीषण संग्राम चछिडा हुभा हो अथवा किसी दर्शन के पदार्थो की गणना ही करनी हो, माधवाचायं की शली एकरूपता का अद्वितीय दृष्टान्त उपस्थित करती है ।
यह प्रायः देखने मे आता दहै कि किसी विशिष्ठ सम्प्रदाय का ठेखकं दूसरे सम्प्रदायो की विवेचना करते समय अपने विचारों का आरोपण करने लगता हैयाकमसे कम उस विवेच्य सम्प्रदाय की आलोचनाभी करता जाता दहै । किसी भी केक से निष्पक्ष या वस्तुनिष्ठ ( (0}९५५१९९ ) होने की आजा करना सरासर भल है परन्तु माधवाचायं मानो इस नियम के सबसे बडे अपवाद है । किसी भी सम्प्रदाय की विवेचना मे, चाहे वह चार्वाक ही क्योन हो, आचायं की निष्यक्षता इलाघनीय है । प्रत्येक दर्शन के सिद्धान्तो जोर पदार्थो की व्याख्या
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अधिकसे अधिक स्पष्ठरूपमें निर्विकार भाव से उन्होने की है । यही कारण है कि भारतीय दशनो के अध्ययन में उनके सवंदशनसंग्रह का महत्व इतना अधिक अंकित हुआ है ।
अब हम कुछ देर के किए अपने विवेच्य विषय से हटकर दर्शन-दास्त्र के विषय मं सामान्य रूपसे कुछ विचार करे ओर उसी परिगरय म शरस्तत ग्रन्थ का मूल्यांकन करं । र
दशंन-शब्द का व्युत्पत्ति-जन्य अथं है देखना, विचारना, श्रद्धा करना । आदि-कालसे ही मानवं ने अपने जीवनमें दशनं को प्रम स्थान दिया था। वस्तुतः जीवन के प्रति मनुष्य का टष्टिकोण ही दशन है जो व्यक्ति-व्यक्तिके लिए भिन्न-भिन्न हआ करता है । मनुष्य में अपने आस-पास के पदार्थो को समने के लिए जिज्ञासा की लहरं सदा दौड़ा करती हैँ । यही नहीं, उसके साथ इन वस्तृओं का क्या सम्बन्ध है, उस सम्बन्ध का निरूपण कौन करता ठै, उसके ज्ञान के क्या साधन ट, इत्यादि ` कितनी एसी शंकाये है जिनसे मनुष्यं को चिन्तन की प्रेरणा मिकती रहती है । सामान्य रूप से दर्शन के आविभाव का यही इतिहास है ।
इस विषय मे भी भारतवषं की अपनी वि्ेषता है। रेखा कहा जाता है किं भारतीय दशन दुःख की आधार-शिलका पर प्रतिष्ठितदहै। प्रायः सभी दर्शन दुःख-नि्रृत्ति के लिए ही उपायों के अन्वेषणमें च्गे हुए हैँ। यह् एक निर्चित तथ्य दहै किगप्राणी संसारम त्रिविधात्मक दुःखों से ग्रस्त है। उसकी स्वाभाविक ्रवरृत्ति होती टै किं सुख की प्राप्ति करे) यह तो एक दूसरी विशेषता है किं एक ही उपायसे दुःख का निवारण तथा सुख का आसादन भी हो जाय 1 लेकिन
ह सुख टै क्या चीज ? क्या रूपये पा लेना, परीक्षा मँ प्रथम होना, या नौकरी
पालेना ही सुख है ? उत्तर होगा किंये सभी सुखन केवलं क्षणिक हैँ अपितुये अतिशय से भरे हुए हैँ अर्थात् इन सवो मे एक से बढ़ कर एक सुख हैँ । इनकी कोई सीमा नहीं । एकं सुखद वस्तु मिलने पर दूसरी की कामना होती है । यही नही, कभी-कभी तो सुख की एक निदिचत परिभाषा देना भी असम्भव हो जाता है। जो वस्तु राम के लिए सुखद है, मोहन के लिए नहीं । दर्शनों का लक्ष्य है कि किसी भी उपाय से सर्वोच्च सुख की प्राप्ति का उपाय बतकायं जो साथ ही साथ इस जगतु के दुःखो का आत्यन्तिक निवारण करने मे समथं हो । सांसारिक दुःखों को बन्धन ओर उनकी निवृत्तिको दाशंनिक भाषामें मोक्षके नामसे पुकारते हैँ । यही बन्धन ओौर मोक्ष भारतीय दशंनों का मुख्य प्रदन रहा है । यह दूसरी बात है किं उनके स्वरूप पर विभिन्न मत हैँ अथवा दुःख-निवृत्ति के उपायों के विश्लेषण में मत-भेद है । कोई दाशंनिक कह सकता है कि महेश्वर
न्क्व ४ + ` ~ जक. बर
व = ~ 4 द न + + अभ १ छन. न -* 14 "५. ० =.
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॥ १४.)
की सेवा से मोक्ष मिलता है तो दूसरा कह सकता है कि आत्मस्वरूप के साक्षा- त्कार से मोक्ष मिलता है। कोई दादँनिक जीते-जी मोक्ष प्राप्त होने की बात करता दै तो कोट मृद्युके बाद ही मोक्ष की सत्ता निर्धारित करता टै! इस तरह दशनो में भेद होता है। |
आत्यन्तिक दुःख-नाश॒ ओर आत्यन्तिक सुख दोनों का सम्मिलित नाम मोक्ष ( मुक्ति, निर्वाण, महोदय ) है । मोक्ष पाने के ल्थि श्रुतियां तो उपाय बतलाती ही है ताक्रिक दृष्टिसेभी करई दशनो मे इसपर विचार किया गया है। नैते बौदढध-द्ंन चार आयं-सत्यों के ज्ञानको ही मोक्षसाधन समन्षता है तो न्थाय-दर्शन अपने दशन मे कटै गये पदार्थो के साक्षात्कार कोदही मोक्ष का खाधन मानता है) दूसरी ओर शंकराचायं आत्माके ज्ञान को मोक्ष का साधन स्वीकार करते ै। यह देखनेमें आतादटै कि मोक्षके विचार को लेकर प्रत्येक दन मे कुछ-न-कंछ विचार किया गया है । यहाँ तक कि चार्वाक नेभीकहादै किदेह कानष्ट हो जाना मोक्षटहै। कुछ लोग मोक्ष कै प्रदन पर बहुत दूर तक विचार करते हए पुनजंन्म का सिद्धान्त भी मानते है। उनका कहना है कि इस संसार मे आवागमन का क्रम जब तक चलता रहेगा तब तक तो प्राणी बन्धनमेंही पड़ाटै। मोक्ष होने पर नतो उसे जन्म लेना पड़ता ओर न उसकी मृत्यु होती दे । व
पाश्चात्य दर्शन मे मोक्षके प्रन परलोग मौनदहै। यदहीकारणटै किं भारतीय दर्शन सेवे एक नयी दिशाका निदेश पाते है। यद्यपि पाश्चाच्य दशन मे भी भौतिकवाद के तुच्छ धरातल से बहुत. ऊपर उठकर हीगेल ( ९2९ ) के पूणं प्रत्ययवाद मेँ प्रवेश करने की चषा हुद दै किन्तु भारतीय दशनो के तारतम्य तथा गंभीरता का ले भी उन दशनो मे नही है। कारण यह है कि भारत में दर्शन को जीवन से पृथक् कभी तहं समज्ञा गया, चाहे चार्वाक हो अथवा शंकर--सव के सब जीवन् के धरातलं पर ही अपने दशनो की प्रतिष्टा करते है । यही कारण है कि भारतीय दर्शन पाड्चात्य दशनो कौ भाति न केवर तत्त्वो की मीमांसा करता है, अपितु आचारशाखर, प्रमाणशाख, क्रियादाख, मोक्षदाख्र आदि सभी विषयों को अपने में खमेट कर चरता हैँ । कहना न होगा कि पार्चाच्य दशन् उक्त पक्षों मे सों पर समान रूप से विचार नहीं करता । तत्त्वो की मीमांसा ( 216४९10 ‰51०8 ) में वह इतना संनढ है करि अन्य प्रदनों पर विचार करनेका उसे अवकाशही नहीं है । जिन वाक्यो ओर शब्दों पर हमारे यहाँ के वैयाकरणो, नैयायिको, ओर मीमांसकों ने बहुत प्राचीन काल मे ही विस्तृत विचार किया था उन पर पाइचातत्य जगतु
2 | २८ )
मं अभी-अभी अनुसंधान हृए हैँ तथा वे भी किसी निरिचत तथ्य पर नहीं परटुच सके है । इसका निष्कं यह निकला कि भारतीय दर्शन एक सर्वागीण ओर परिपूर्णं गार है । इसमे अब कुछ भी परिवर्तन, परिवर्धन, संशोधन की आवश्यकता नहीं दै, उसका संकलन हम भले कर से, पाश्चात्य दशनो से उसकी तुलना भटेहीकी जाय अथवा उसमे विद्यमान किसी महत्वपूणं प्रश्न को केकर अनुसंधान भले ही किया जाय, परन्तु ओर किसी दूसरे कायं की आवश्यकता उसमे नहीं है । दूसरी ओर पाइचात्य दक्शंन अभी भी अपूणं है-- जीवन, जगत् , या ईदवर की व्याख्या में पूर्णतः सफल नहीं है ।
तो, मोक्ष का प्रन भी रेसा ही प्रश्न है जिसके विषय में भारतीय दर्शन ही परिपूणं समाधान दे सकता दै। दशंनोंके तारतम्यसे चार्वाकिके द्वारा प्रतिपादित मोक्ष को विचारधारा से आरम्भ करके हम बढ़ जते है ओर शंकराचायं के अद्ैत-वेदान्त में जिज्ञासा कौ पूतः शान्ति पाते हँ । माधवाचायं की यही मान्यता है । अपने-अपने सम्प्रदाय के अनुसार दूसरे लोग मध्यवर्ती दशनों मे प्रतिपादित मोक्ष का भी आश्रय छते है। विभिन्न दशनो में अन्य विषयों पर भक्ते ही मतभेद हो किन्तु इस प्रश्न पर सब एकमत हैँ किं मूल तत्त्व के साक्षात्कार से ही मोक्ष की उपलब्धि हो सकती है ।
किन्तु यह साक्षात्कार हो कैसे ? इसके लिय प्रमाणो के रूप मे साधन दिये गये है । यह प्रशन सावंजनिक है कि हम किसी वस्तु का ज्ञान कैसे प्राप्त करते है? शुद्धज्ञान के कौन-कौन से साधन है? प्रत्येक दर्शन मेँ इस प्र विचार किया गय है ओौर अपनी रुचि के अनुरूप दार्शनिकों ने प्रमाणो की संख्या निर्धारित की है । चा्वाकि केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है । उसके अनुसार कोई भी ज्ञान इन्द्रि की अपेक्षा रखता है। इन्दियों से उत्पन्न ज्ञान ही यथाथं अनुभव है । चावकि-दशंन में यह् विचार किया गया है किं अनुमान के लिय व्याप्ति-ज्ञान की आवद्यकता पड़ती है ओर व्याप्ति कौ स्थापना किसी भी साधनसे नहीं हो सकती है । यह हम कह सक्ते हँ किं धूम ओौर अग्नि का सम्बन्ध हम अपनी आंखों के सामने वतमान कालम भलेही जाने किन्तु इसके लिये कोई प्रमाण नहीं है कि वतमान कालमेही हमारी ओँल से दूर किंसीस्थान मेभी धूम ओर अगि का सम्बन्ध होगा। अतीत काल ओर अनागत कालके विषय मतो कहना ही कठिन है। स्पष्टतः चार्वाकं की यह विचारधारा विड ह्यूम के संशयवाद ( 306]धंभे ) से बहुत कु मिलती-जुलती है ।
दूसरी ओर, बौद्धो ओौर जनों के अनुसार प्रत्यक्ष ओर अनुमान दो प्रमाणं हँ । इनका कहना है कि व्याप्ति का ज्ञान प्राप्त करना कोई कठिन नहीं ।
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बौद्ध लोग तो व्याप्ति की स्थापना के ल्यि कार्य-कारण-सम्बन्ध तथा तादात्म्य- सम्बन्ध को उपायके रूप मँ उपस्थित करते है किन्तु जैन लोग॒ अन्वय ओर व्यतिरेक की विधिसेदी संतुष्टहै। हाँ, इतना वे दोनों मानते है किं व्यभिचार कीशंकान रहे। शब्द ओर उपमान आदि प्रमाणों को अनुमान के अन्तगंत ही रखा जाता है। वेशेषिक लोग भी इसी विधिसे केवल दो प्रमाण ही मानते है । उनका कहना है कि शाब्द-प्रमाण सभी स्थानों पर प्रमाण ही नहीं होता ।
माध्व-सम्प्रदाय वेदो ही प्रमाण मानते हैँ किन्तु अनुमान नहीं, प्रत्यक्ष ओर शब्द को । शब्दके द्वारा प्रतिपादित अथंका बोधकं होने पर ही अनुमान प्रमाण माना जा सकता है । रामानुज-सम्प्रदाय वले स्पष्ठरूपसे अनुमान को पृथक् गिनकर तीन प्रमाणो कौ बात करते हैँ। इन तीन प्रमाणोंको माननेकी प्रथा सांख्य-योगमेभीदहै।
प्रमाणो के विशेषन्ञ के रूप में मान्य नैयायिको ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान ओर राब्द इन चारों कोप्रमाणके रूप में स्वीकार किया है। माहेश्वर- सम्प्रदाय वाके भी घुमा-फिराकर इन्हीं प्रमाणो को स्वीकार करते हँ । मीमांसकों के अनुसार अर्थापत्ति ओर अनुपलब्धि को भी प्रमाण माना गया है। यह् दूसरी बातदहैकिप्रभाकर-मत के मीमांसक अभाव नहीं मानते। अर्थापत्ति का अथं है किं जब किसी दसरे प्रकार से वस्तुस्थिति की असिद्धिहो तो किसी एक स्थिति का आपादन कर, जैसे दिन में भोजन न करने पर भी देवदत्त मोटा हुए चले जा रहे है, तो अर्थापत्ति से हम जान सक्ते हैँ किवे रातमेंही उट कर भोजनं करते होगे क्योकि किसी दूसरे प्रकार से उनकी मोटाई सम्भव नहीं है । अनुपकन्धि का अर्थंदहै किसी वस्तुका अभाव जानना) सभामे परहुचतेहीहमे मालमहो गया कि वहाँ हमारा मित्र नहीं है। यह् बात अनुपलन्धि-प्रमाणसे ही माङ्म हुई है । शंकराचार्य भी उपयुक्त छह प्रमाणो को ही मान्यता देते हैँ । पौराणिको काभीएक सम्प्रदायदहै जो सम्भावना ओौर एेतिह्यको भी प्रमाण मानता दहै । न्वा प्रमाण चेष्ठा है जिसे तान्त्रिक ओर साहित्थिक लोगं मानते हैँ । यद्यपि इन प्रमाणो मे प्रत्यक्ष को शिरोमणि कहा गया है किन्तु करई एेसे विषय हैँ जिनकी सिद्धिके ल्यि हमे अनुमान ओर शब्द पर अवलम्बित होना पडता है जसे ब्रह्म की सिद्धिके चयि श्रुति को ही शंकराचार्य ने प्रमाण-शिरोमणि मानाहै।
इस प्रकार प्रमाणो की विवेचना करने के परचातु इनके आधार पर दाशनिकों हम दो कोटियो मँ रख सक्ते ह*--ताकिक, ओौर श्रौत । श्रौत
दाशंनिक वे हैँ जो मूरतत्त्व के अन्वेषण मे श्रृति को ही मुख्य साधन मानते है ।
# अभ्यंकर-उपोद्घात पृ० ४२।
( ३० )
उन्दर हम वेदवादी भी कह सकते है । इनमें शंकराचायं, जेमिनि, पाणिनि आदि आते हं । ` ताक्किक दारेनिकसे हमारा अभिप्राय मह है कि मूलत्व के अनु- संधान से ये लोग एकमात्र तकं का सहारा लेते है । तकं ओर कुछ नहीं, अनुमान काही दूसरा नामहै।ये लोग श्रुति में प्रतिपादित विषयों को भी तकं-निकष पर कंसनेःपर ही प्रमाण मानते है । ताक्तिकोंकेभीदोभेदरहँ- एकतो वे दादनिक जो अपने को स्पष्टतः ताकिक क्ते हैँ ओर दूसरे वे जो अपने को श्रौत कहने पर भी भीतर-भीतर तकंका ही सहाराच्ते है बादरायण के ब्रह्मसूत्र की व्याख्या करने वाके रामानुज ओर माध्व सम्प्रदाय वाले दानिक कहते है किं हम लोग उपनिषदों को प्रमाण मानते है किन्तु श्रुति-वाक्यों का जो अथं उन्होने पूर्वाग्रह् के कारणं किया है उससे तो यह् स्पष्ट मादरम होता है कि ये प्रच्छन्न ताकिक ह । उदाहरण के च्िस्पष्टरूपसे जीव ओर ब्रह्मकी एकता का निर्देश करने वाले ( तत्वमसि ) इस वाक्य का उन दोनों ने कैसे निर्वाह किया है यह देखने ही योग्यै) रामानुजकी दातो ओर भी दयनीयदहै। वे अपने श्रीभाष्य मे शंकराचायं की लिल्ली उड़ाते ह कि शंकर श्रौतमत के बहाने से छिपकरर बौद्ध धमं का प्रचार कर रहे ह । ओर रामानुज ? वेद-मत का प्रचार करते हुए क्या चि हुए ताकिक वे नहीं टै ?
वांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक आदि भी ताक्रिक ही है क्योकि इन्होंने भी अपनी प्रतिष्ठा अनुमान के बल परहीकीटै। यहाँ स्मरणीय है किश्वौत ओर ताक्रिक दाशंनिकों मे भेदकाकारण यहटहै किश्चौतपक्षमे बेदोंको स्वतः प्रमाण माना गया है जब कि ताक्रिक पक्षम उन्हं परतः प्रमाण मानते हैँ । स्वतःप्रमाण का अर्थं हैकि वेदों की प्रामाणिकता अपने आप में सिद्ध ( 96] ९११९४ ) है, किसी दूसरे प्रमाण को उसे सिद्ध नहीं करना पडता । तदनुसार वेदों को अपौरुषेय मानते ह । वेदो की शक्ति अकुण्ठित या अप्रतिहत हे । द्री ओर, जो लोग वेदों को परतः प्रमाण मानते उनका यह कहना है कि वेद पौरुषेय है, अनित्य है, उनकी सिद्धि के लिए हमें दूसरे साधनों पर निर्भर करना पड़ता है । इस दशा में वेदों को पुरुष अर्थात ईव र की रचना मानते ह ।
पौरुषेय ओर अपौरुषेय का विचार मीमांसा-दशेन मे अच्छी तरह हुआ है। अन्तमें वेदोंको अपौरुषेय ही माना गया है। इनका कथन है किं वेद ईश्वर से केवल प्रकारित हुए हैँ । जसे मनुष्य अनायास ही निःख्वास छोडता है, उसे नतो बुद्धिकी आवदयकता पडतीटहै यान किसी परिश्रम की। उसी प्रकार वेदभी ईदवरसे प्रादुभूत हुए है। अपोरुषेय मानने परी
१. देखिये, पृ २४७ ।
५/१
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श्रौत दाानिकों ने श्रुति की प्रामाणिकतां सबसे ऊपर स्वीकार की है। यहाँ यह स्मरणीय है कि सत्ताओं के भेद से श्रुति ओर प्रत्यक्ष इन दोनों प्रमाणो मे कोई विरोध नहीं है । जहाँ तक व्यवहा र-जगत् का सम्बन्ध है, हरे प्रत्यक्ष को प्रश्रय देना ही पडेगा । लौकिक दषटिसे देतभी सत्य हीदहै। किन्तु पारमार्थिक दृष्टिकोण से विचार करने पर श्रुतियों को प्रधानता देनी पडेगी । उस दशा में अद्रेतवाद ही सत्य सिद्ध होता है ।
प्रमाणो के इस विवेचन में हम दो बातें स्पष्टरूपसे देखते हँ --एकं तो प्रमाणो की संल्या ओर दूसरी प्रमाणो की प्रामाणिकता या पूर्वापरता । यह्
स्वंमान्य है कि प्रमेय पदार्थोका विचार करनेसे पूवं प्रमाणोंका संग्रह कर
लेना आवश्यक है ।
प्रमाण से जिसकी सिद्धि की जाती है उसे प्रमेय कहते हैँ । इसमें मुख्य रूप से तीन पदार्थं मिरते हैँ । जीव, जगत् ओर ईख्वर । कोई दाशंनिक तो इन तीनों की पदार्थता मानते है, कुछ केवल दो की ओर कुछ केवर एक की । वस्तुस्थिति चाहेजोभीदहो इन तीनों की व्याख्या उन सों को करनी पड़ती है- चाहे वे तीनोंकोएक हीमे क्यों न समेट लं । तो इनका क्रमः निरीक्षण करं--
( १) ईेश्वरः--ईदवर के विषयमे चार्वाक कातो कहना है कि इसकी सत्ता अलौकिक नहीं । पृथ्वी का राजादही परमेइवरदहै। यदि चावकिंसे पुछा जाय कि ईङ्वर के न मानने पर लौकिक ओर अलौकिक कर्मो का फल कौन देगा ? तोये बतकायेगे कि लौकिक कमं तो राजाके अधीन ही-वही तो निग्रह ओर अनुग्रह करने में समथंदहै। याचकोंको दान देकर ओौर चोरों को दण्ड देकर वह॒ खभी कर्मो का फल यथाविधिदेताही टै) अब रही बात अलौकिक कर्मो की। ये अलौकिक कमं वास्तवमे धूर्तो के उपाख्यानहैजो जनसामान्य को ठगने के ल्ि वैदिकं वंचकों के बकवाद हैं ।
बौद्ध ओरं जेन अपने-अपने धर्मं प्रवतंकों को ही ईदवर मानते हँ । वस्तुतः ये लोग भी ईइवर की सत्ता मानते ही नहीं । सांख्य में भी ईदवर नहीं माना जाता । मीमांसक लोग भी ईरवर नहीं मानते किन्तु मनुष्य के कर्मो का शुभ- अशुभ फल देने के व्यि अदृष्ट नाम की एक शक्ति स्वीकार करते हैँ । वैयाकरण लोगो से पृचछने पर सम्भवतः वे यह करगे कि शब्दं की परा अवस्था जिसे स्फोट भी कहते है, वही ईखवर है । रामानुज ईदवर पर कुछ विशेषणो का आरोपण करते हैँ । उनके अनुसार ईइवर जीवों का नियामक, अन्तर्यामी ओर उनसे पृथक् पदार्थं है । जीव ओर जड उसके गरीर है जीवों को वह उनके कर्मो के अनुसार फल देता हैँ । मध्वाचायं के अनुसार भरी ईङ्वर इन्हीं विशेषणो से युक्त
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है किन्तु यह अन्य पदार्थो से सर्वथा भिन्न दै। बह संसार का उपादान-कारण नहीं, केवल निमित्त-कारण है । महेस्वर सम्प्रदाय, नैयायिक ओर वेशेषिक- दर्शनों कौ भी यही मान्यता है । केकिन इस दशंन-समूह मे दो मत दहो जाते हे । पाशुपत ओर प्रत्यभिज्ञा दशंनों मे यह माना गया हे कि ईश्वर कमेका कल देने के समय जीवों के द्वारा किये कर्मा की अपेक्षा नहीं रखता क्योकि एेसा मानने पर ईदवर की स्वतंत्रता नहीं रह सकेगी 1 दूसरे महेश्वर, वेेषिक ओर माध्वमत वाले कहते है कि ईखवर कर्मो की अपेक्षा रखते हृए ही संसार का निर्माण करता है ।
योग-दश्चन मे यद्यपि ईदवर जीव से भिन्न है किन्तु वहनतौ संसार का निमित्त-कारण है जौरन उपादान ही। वह सवथा निप ओर निगुण है । शंकराचायं के अनुखार भी ईश्वर वैसा ही दै किन्तु वह पारमार्थिक टे । यह स्मरणीय है कि जगत् ओर ईरवर की सत्ताओं में ` अन्तर है । अतः दोनोंमे कार्य-कारण-भाव होना असम्भव है। माया के आधार पर ईत्वर संसारका उपादान-कारण बनता है किन्तु विवतं रूप से ।
, इई्वर क विषय मेँ दिये गये बहुत से प्रमाण हैँ । किन्तु खभी अनुमान ओर श्रुति पर आधारित हैँ । यदि श्रोत-दर्शन हो तो ईवर श्रुति-चिद्ध है ओर यदि तारक दशन हो तो ईवर की सिद्धि अनुमानसे करते ह । फिरभी श्रति की प्रधानता अन्ततः स्वीकार करनी ही पडती है ।
( २ ) जीव-ई््वर के समान ही जीव को लेकर भो दारंनिकों मे बड़ा विवाद है। सरवंप्रथम चार्वाकों की ओर इष्टिपात करने पर हम देखते हैकिवे शरीर कोही आत्मा कहते ह यदि उसमे चैतन्य हो । कर्ता ओर भोक्ता भी वहीदै। चार महाभूतो ( (31088 €]€0€08 ) के मिलने से विशेष त्रिय द्वारा चैतन्य उत्पन्न होता है । उसमें चैतन्या के दारा ज्ञान होता है, देहांश तो जडकेसूपमेहीहै। यहं दूसरी बात है कि कुछ चार्वाक इन्द्रियो को ही आत्मा मानते है । कु प्राण को ओर कुछ मन को भी आत्मा मानते हँ । चार्वाको का मत विभिन्न दर्शनों मे पूवंपक्ष के रूप म उपस्थित किया गया है, स्वतन्त्र रूप से तो कहीं उनके विचार मिरे ही नहीं ।
बौद्धो के अनुसार जीवात्मा विज्ञान के रूपम है) चकि विज्ञान क्षणशक्षणः बदलने वाले प्रवाह के समकक्ष है इसलियि आत्मा भी क्षण-क्षण बदलने के कारण अनित्य है । पूर्वक्षण में उत्पन्न विज्ञान अपने उत्तरक्षणमें संस्कारके रूपमे चला आता है इसलिये स्मृति आदि की सिद्धि की जाती है। शून्यवादी बौद्ध तो आत्मा के मूल रूप को शुन्य ही मानते है किन्तु व्यवहार कीदलामे आत्माकी
( ३३ ,
प्रतीति भी उन माननी पडती है। जनों के अनुसार जीवात्मा देहसे भिन्नही है किन्तु देह के परिमाणमें ही रहती है । देह के बढ़ने ओर घटने से जीवात्मा भी बढती-घटती रहती दै । उनके अनुसार जीवात्मा नित्य तो है किन्तु उसमे विकार होते रहते है । खरे शब्दो में वह अपमा कूटस्य ( एक समन रूपमे } नित्य नहीं है।
आस्तिक दर्शनों मे, नैयायिकं ओर वैशेषिकं का यह कहना है किं जीवात्मा के गुण बुद्धि, सुख, दुःख आदि जब अनित्य है तो जोवात्मा भी विकारी है क्योकि धर्मी मे आने ओर जाने वाले धमं धर्मी को विकारशील बना देते है। कहने का अभिप्राय है किं जीवात्मा कूटस्थ नित्य नहीं है ओर आत्मा का स्वल्प जड कै समान हो जाता है । यही कारण है किमृक्तिकीदशामें ज्ञान का नाड हौ जाने से आत्माय पाषाणवत् हो जाती है । प्रभाकर-मीमांखकों के मत से यह सिद्धान्त बहुत कु मिकता-जुलता है । मीमांसकं का दूसरा सम्प्रदाय भाद्र-खम्प्रदाय मानता है कि आत्मा अंशा के भेद से ज्ञान ओर जड़ दोनोंकेरूप न है । शैव, सांख्य ओौर योग के सम्प्रदायो मे तथा वेदान्तियो के मत से आत्मा केवल ज्ञान के स्वरूपम दै । यह दूसरी बात है कि अद्रैत-वेदान्ती, सांख्य ओर योग वाले आत्मा को निगंण मानते हैँ जब कि दवैत-वेदान्ती, विरिष्टद्वैत-वेदान्ती, नैयायिक ओर वैशेषिकं आत्मा को सगुण मानते है ।
जहौ तक जीवात्मा के परिमाण ( 148६१४१९ ) का सम्बन्ध है, बौद्ध लोग कहते है किं आत्मा विज्ञानो का प्रवाह है अतः उसका कोई परिमाण नही हो सकता । वास्तव मे आत्मा का आश्रय कोई है ही नहीं जिससे आत्मा उसके अनुरूप कोई परिमाण धारणं कर ठे । रामानुज, मध्व ओर वल्लभ-सम्प्रदाय वाले कहते हँ कि जीव का परिमाण अणु के समान ( ^ ४०10) है । नैयायिक, बैगोषिक, सांख्य, पातञ्जल तथा अद्ैत-वेदान्त वाले जीवात्मा को विश्रु ( 4 ॥- 06९881९8 ) कहते है । प , शून्यवादी ओौर जेन रोग आत्मा को अणु ओर विभु के बीच में रखते है अर्थात् जीवात्मा मध्यम परिमाण की है।
जीव कत्ता या भोक्ता है, इस विषय पर भी मत-भेद है । नैयायिक ओर ` वैशेषिक तो जीवात्मा का कंतुत्व सत्य मानते हैँ किन्तु रामानुज ओर मध्व- सम्प्रदाय वाले उसके सत्य होने पर भी उसे नैमित्तिक मानते है स्वाभाविक नहीं । अदरत-वेदान्ती कहते है कि जीवात्मा कुछ उपाधियों के कारण ही कर्ता बनती है । सांख्य-योग में प्रकृति को कर्ता माना गया ह । इसीलिये प्रकृति के
# दे° पंचदरी ( ६।८८ } । र
( ३४ )
सम्बन्ध से जीवात्मामें भी कर्ताहोनेकी प्रतीति हो जातीहँ। जिस रूपमें जीवातमा कर्तादहै उसी रूपमे भोक्ताभी रहै)
( ३ ) संसार-संसार अर्थात् जड़-वगं कौ सत्ता के विषय में किसी का मतभेद नहीं हो खकता, भले ही वह सत्ता भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणो से मानी जाय । चावकिंका कहना है किं जड़ पदां ही संसार का मरक कारण है। पृथ्वी, जल, अग्नि ओर वायुके परमाणुहीसंसारका निर्माण करते है। बौद्ध रोग यद्यपि चार्वाक की तरह ही आकाश-तच्व नहीं मानते किन्तु वे चार्वाकके द्वारा सम्मत परमाणुओों मे अवयव मानते हँ ओर उन अवयवो का प्रवाह संसार का निर्माण करता है । जैन लोग एक प्रकार के परमाणुओं को ही संसारके मूल कारण के रूपमे स्वीकार करते दँ! आकाश भी इहं मान्य है । न्याय- | वैलेषिक दर्शनों मे सूयं की किरणों मे उडने वा धरल-कर्णो के अवयवों को परमाणु कहते ह 1 दो परमाणुं के संयोग ॒से एकं इयणुक बनता है ।. तीन द्रचणुकों के मिलने से एक व्यणुकं बनता टै । यही सूयं की किरणों में धूल के रूपमे दिखलाई पडता है) इसीक्रम से संघार का निर्माण होता है। ये परमाणु नित्य है । दूसरी ओर, मीर्मासक ओर वैयाकरण परमाणुओं कोभी अनित्य मानते हए केवल शब्द की नित्यता स्वीकार करते हैँ । यह शब्द ही संसार का मूक कारण है) सांख्य-योग के मतसे यह शब्द भी कायं है, नित्य नहीं क्योकि शब्द का कारण अहंकार है । अहंकार का कारण महत् ओर महत् का कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति है । रामानुज-सम्प्रदाय वाछे इसे ही मान्यता देते ई । अद्वैत-बेदान्तियों के अनुसार यह प्रकृति भी मुक कारण नहीं हो सकती । यह ब्रह्य का विवतं है जिससे प्रकृति सद्वस्तु के रूपमे प्रतीत होती हे! आत्माही संघारका मूलकारणटहै। ये सारे दृश्यमान षदाथं उसी के विवत है ।
अब हम यह विचार करं क्रि यह पृष्ट मूल कारण से किस खूप मे सम्बद्ध है। इस पर न्याय-वैशेषिकों का कहना है कि कारण तीन प्रकार के है--समवायी, असमवायी जर निमित्त । ये तीनों मिलकर अपने से भिन्न कायं को उत्पत करते ह । अर्थात् कारणों से भिन्नरूप मे कायं की उत्पत्ति होती टे । इसे ही आरम्भवाद भी कहते है । खभी लोग इस मतको नहीं मानते । बौद्धो का कहना है कि समवायी अर्थात उपादान कारण ( जेस मिदर या सूत ) अपनेसे भिन्न कायं उत्पन्न नहीं करते हँ । तदनुसार समवायी कारण का संघात ((00- ४०800) होने से ही कायं होता टै । इसे केवल सौत्रान्तिक ओौर वेभाषिक बौद्ध ही मानते ह। चकि संघात भो क्षण.क्षण मे बदर रहा दहै अतः कारण
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के नष्ट होवे ही कायं उत्पन्न हो जाता है। शून्यवादी तो कगे कि का्यंका कारण कभी सद्रूप होता ही नही, असत् होते हए भी क्षण-क्षण मे प्रतीत होता रहता है । इस मत को लोग असत्ख्यातिवाद् कहते हैँ । विज्ञानवादियों के अनुसार विज्ञानरूपी आत्मा क्षण-क्षण मे नये-नये बाह्य पदार्थो के रूप में प्रतीत होती है । उपादान-कारण जब वास्तवमें कायंके रूपमे बदल जायतोउसे ` परिणामवाद कहते है जिसे सांख्य-योग ओर रामानुज-वेदान्त मे माना गया है। जब कारण की परिणति कायंके रूपमे सचमुच नहींहो, केवर वसी श्रतीति हो तो उसे विव्तवाद् कहते हँ जो शंकराचायं की मान्यता है ।
शंकराचायं के विवतंवाद का एक रूप दष्टि-खृष्टिवाद् के रूपमें देवने मेँ आता है। इसका अथं है किं जिस समय हमने देखा उसी समय उसकी यृष्टिहो गई । वस्तुस्थिति यहदटै कि देखने के समय द्रष्ठाकी अविद्या के कारण उक्तं वस्तु उसरूप में सृष्ट ( €&४९१ ) दिखलाई् पडती है । पहङे से उसकी सत्ता नहीं रहती । राम ने सीपी मे रजत देखा तो उस समयं उस स्थान पर रजत राम की अविद्या से ही उत्पन्न हुआ है, उसके पूवंया परचात् रजत की प्रतीति नहीं होती । सांसारिक प्रपच भी व्यक्ति की अविधा के कारण तात्तालिकि ओर तद्रूप ही मृष्ट होता है। जीवों.को नानात्मक मानने पर प्रपंचकाभेद भीहोगा। वास्तव में जीव होना' ही अवियाके कारण होता है, वह वस्तुतः तो है नहीं । अभिनवगुप्त के सम्प्रदाय ( प्रत्यभिज्ञा ) में भी यही बात कही गयी है परन्तु वे लोग ॒प्रतितिम्बवाद् नाम का सिद्धान्त मानते है । यह ठीक है कि जगत ब्रह्मकेकारणहै किन्तुनतो ब्रह्मने संसार काञारम्भहीक्याहै, नतो वह ब्रह्म कापरिणामदहैभौर नही बिवतं। जेसे दपंण मे बहिभरुत पदार्थो का प्रतिबिम्ब दिखलाई पडता है वैसे ही ब्रह्म मे अन्तभूत जगत् का प्रतिबिम्ब दिखलाई पडता है । विम्ब के स्थान पर स्वीकृत माया ब्रह्म मे अपना सम्बन्ध दिखाकर बिम्ब के अभाव मं भी प्रतिबिम्ब उत्पन्न करती है। अतःनतो विम्ब को अलग मानकर द्वैत-पक्ष मे जाना पडता ओर न बिम्ब पृथक् नहीं है" कट् कर मूकच्छेद ही करने की आवश्यकता है ।
तत्व-विचार- सभी दार्शनिकों ने, चाहे वे कहीं के हों, किसी-न-किसी रूप में संसार के मूल पदार्थो ( ८107816 हदशा प्त ) पर विचार किया है। इन्हे ही भारतीय दशन मे पदाथं या ^तच्व'के नाम से पुकारते ह। चार्वाक ोगों का कहना है कि पृथ्वी, जल, अन्ति ओर वायु, ये चार तत्त्व है । बौद्ध लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के तत्व मानते हं । शून्यवादी केवल शून्य को, योगाचार वाे केवल विज्ञानस्कन्ध को तथां अन्य बौद्ध पाच आन्तरिक-
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स्कन्धो को ओर चार बाह्य परमाणुओं को तच्व मानते है । भगवान् बुद्ध के विचार से दुःख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोध ओर निरोधमागं ये चार आयं-सत्य अर्थात तत्त्व है । जैनं के विचारसे दो तत्तव है जीव ओर अजीव । इन्हीं का विस्तार पांच तच्वोंके रूपमे किया गया है जीव, आकाश, धर्म, अधमं ओौर पुद्गल । उसी प्रकार सात त्वो का वणन भी कृ लोग करते है-- जीव, अजीव, आखव, संवर, निजेर, बन्ध ओर मोक्ष । ये नास्तिक दाशेनिकों के विचार रै,
रामानुज-सम्प्रदाय के अनुसार सभी पदाथं प्रमाण ओौर प्रमेयके सूपे बटे हृए हैँ । प्रत्यक्ष, अनुमान ओर शब्द प्रमाण है ओर द्रव्य, गण तथां सामान्य प्रमेय है । द्रव्यो के भीछः भेद है -- ईश्वर, जीव, नित्यविभूति, ज्ञान, प्रकृति ओौर काल । गुणों के दख भेद है-- सत्व, रजस् , तम॑स् › शब्द, सपद, खूप, रस,
गन्ध, संयोग ओ र शक्ति । सामान्य द्रव्य-गुण दोनों के खूप में होता है। ईर्वर पौच (रकार का है--पर, व्यूह्, विभव, अन्तर्यामी ओर अर्चावतार । वैकुण्ठ में
निवा करने वाले तथा मुक्त जीवों के द्वारा प्राप्य नारायण ही पर ईदवर है । व्यूह् चार तरह का होता है-- वासुदेव, संकर्षण, प्रदयप्न ओर अनिरुद्ध । यद्यपि भगवान् एक ही है परन्तु प्रयोजनव श उनके चार रूप हो गये हैँ । उनमें ज्ञान, बल, रेश्वर्थ, वीयं, शक्ति ओर तेज, इन छः गुणों से युक्त वासुदेव हैँ । संक्षण-व्यूह मे ज्ञान ओर वल की प्रधानता रहती है । प्रद्युम्न मे देडवयं तथां वीयं कौ प्रधानता र्टती है । अनिरुढमे शक्ति ओर तेज की प्रधानता रहती है । भगवान् के अवतारो को विभव कहते है । अन्तर्यामी ईइवर वह है जो जीवोंके हृदय में रहता है । योगौ लोग इसे पा सक्ते हैँ तथा जीवों का नियन्त्रण भी यही करता है। देव-मन्दिर में प्रतिष्ठित ईर्वर अर्वावतार हे । इस प्रकार ईदव र-दरव्य का निरूपण किया गया 1
जीव ईदवर के अधीन होते है, प्रत्येक शरीर में भिन्न हैँ तथा नित्य दहै। मे तीन तरह क है--बद्ध, मुक्त ओौर नित्य । संसारी जीव बद्ध है, नारायण कौ उपासना से वैकुण्ठ मे पटे हुए जीव मुक्त दै ओर संखारको कभीन दूने वाले अनन्त, गरुड आदि जीव नित्य हैँ । नित्य-विभूति से वैकुण्ठ-लोक खमञ्ञा जाता है! ज्ञान का अथं दहै अपने अपमें प्रकाशित होने वाला जिसे चेतन्य ओौर बुद्धि भी कहते द । प्रकृति त्रिगुणात्मक तथा चौबीस तत्वों से बनी हुई हे । ये चौबीस तस्व है- प्रकृति, महत , अहंकार, मन, पांच ज्ञनेन्द्रया, पाच कर्मेन्द्रिय, पाच तन्मात्र ओर पाँच महाभूत । काकं जड पदार्थं है ओर विभु है। इन सों का स्पष्ट विवेचन यतीन्द्रमत-दीपिका में हज है ।
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माध्व-सम्प्रदाय के अनुसार तत्त्वो की संख्या दस है-दरव्य, गुण कम, सामान्य, विशेष, विशिष्ठ, अंशी, शक्ति, सादृस्य ओर अभाव । द्रव्यो की संख्या बीस है--परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृत, आकाशप्रकृति, तीन गुण, महत्तत्व,
अंहकारतत्व, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, तन्मा, महाभूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वरण,
अन्धकार, वासना, का ओर प्रतिबिम्ब । गुणो की संख्या अनेकं है । रूप, रस आदि चौबीस गुणों के अकावे आलोक, दम, कपा, बल, भय, लज्जा, गम्भीरता, सुन्दरता, धीरता, वीरता, शूरता, उदारता आदि भीगुणमेही चले मतिर्है। कमं के तीन भद है विहित, निषिद्ध ओर उदासीन ! नित्य ओर अनित्य के मेद से सामान्य भीदो तरह केहै। मेदनहोनेपरभी भेदके व्यवहारका निर्वाह करने वाले अनन्त विशेष हँ । माध्व लोग समवाय नहीं मानते । विशेषण् के सम्बन्ध से विशेष्यमे होने वाला आकार ही विशिष्ट नाम का पदार्थं है । अंशी का मतलब है--हाथ, डेग इत्यादि के द्वारा नापा जाने वाला पदाथं। शक्तियां चार है, अचिन्त्य-शक्ति, आवेय-शक्ति, सदज-राक्ति ओर पद-शक्ति । सादृश्य तो छोक में प्रसिद्ध ही दै किन्तु यह दोनों पदार्थो मे स्थित नहीं रहता । दूसरे के आधार पर एक वस्तुं ही स्थित रहता है । वशेषिकों के खमान ही यहाँ चार प्रकार के अभाव माने जते है प्रागभाव, प्रध्वंसाभाकं, अन्योन्याभाव ओर अत्यन्ताभाव । अविद्या पांच खण्डो की होती है-- मोह, महामोह, तामि, अन्व-तामिच्र ओर तम वर्णोकी संख्या इकावन (५१) मानी गईहै इस प्रकार द्ैव-मत में तत्वों का विवेचन बहुत अधिक विश्लेषण के साथ हुआ है ।
अब महेदवर-सम्प्रदाय के अनुसार त्वं पर विचार करं । - पाशुपत-दशन के अनुसार पाच तत्त्व है--कायं, कारण, योग, विधि जौर दुःखान्त । कायं का अथं है अस्वतंत्र पदार्थं जिसके तीन भेद है विया, कला ओर पशु । जीव के गुणों को विद्या कहते है, अचेतन पदार्थं को कला कहते हँ ओर पशु तो जीव हीह) कारणकेदो भेद है स्वतन्त्र ओर परतन्त्र । पांच ज्ञानेन्द्र्या, पाच कर्मेन्द्रियं ओर तीन अन्तःकरण मिलकर परतन्व्र-कारण बनाते है । स्वतन्त्र कारण परमेदवर है । आत्मा ओर ईदवर के सम्बन्ध को योग कहते है, धमं- कायं की सिद्धि करने वाली विधि टै ओर मोक्ष दुःखान्त ।
शव-दर्शन मे पति, पशु ओर पाश, ये तीन पदार्थं कहे गये दै । पतिका अर्थ है शिव, पयु जीव है ओर पाशकेचार भेदर्है-मक, कम, माया ओर रोध-दाक्ति । इन सों का विचार प्रस्तुत ग्रन्थमें किया है। प्रत्यभिज्ञा-दशेन में जीव ओर परमात्मा दोनों को एकाकार कहा गया है । किन्तु जड पदाथं आत्मा से भिन्नभीदहै ओर अभिन्न भी। ओर बाते तो पाुपत-दर्शन से मिलती-जुलती ही ई) रसेव र-दशंन भी तच्व-विचार में कोई नयी चीज नहीं देता ।
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न्याय-वैशेषिक दर्शनों के तत्त्व इतने प्रसिद्ध हैँ जितने किसी दर्शन के नहीं । वस्तुतः उनका दशंन ही ततत्व-विचार-शाख्र है । वैशेषिको के यहां सात पदां स्वीकार किये गये हैँ जिनमें द्रव्य, गुण, कमं, सामान्य, विशेष, समवाय, ये छह भावात्मक ( 2081४*6 ) है ओर अभावं नामका सप्तम पदाथंभी स्वीकृत है । नैयायिकं ने प्रमाण-प्रमेय आदि सोलह पदार्थो का निरूपण किया है 1 यहाँ पर यह ध्येय हैकि नैयायिकों ने अनुमान के छियि पाँच अवथवोंकी आवश्यकता मानी है । वे है--प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय ओर निगमन । ये अवयव प्रायः सभी दा्निकों को स्वीकृतदहैँं। फिर भी कुछ दाञ्निको ने अपने-अपने दृष्टिकोण से इनका चयन किया है । बौद्ध लोग उदाहरण ओर उपनय से ही संतुष्ट है । मीमांसक रोग तीन अवयवो को मानते है--प्रतिज्ञा, हेतु ओर उदाहरण 1 अद्रेत-वेदान्ती केवल तीन अवयवो को ठेते हैँ चाहे प्रथम तीन या अन्तिम तीन। रामानुज ओर मध्व-सम्प्रदायका कोई नियम नहीं हे 1 कभी पचो से, कभी केवल तीन से ओर कभी उदाहरण ओर उपनय,
इन दो अवयवोंसेहीकामल्ेते है । तात्पयं यह हुआ किं उदाहरण तो कोई भी छोडता ही नहीं ।
मीमांसा-शाल्रमे चरंकि वाक्याथे-विचार की प्रधानता है इसद्ियि तत्व का विचार हमें दिखलाई नहीं पडता किन्तु समवाय आदि कु पदार्थो का उनके दवारा खण्डन किया जाना देखकर हमारा अनुमान है किं वैशेषिकं की तरह कुछ पदार्थो को वे अवश्य मानते दँ । वेयाकरण लोगों को शब्दां के विचार से अवकाश ही कहाँ है किं तच्व पर विचार करं ? किन्तु वास्तव में उन्होने विचार करिया दहै। तत्व-विचार की दृष्टि से वे प्रत्यभिज्ञा, मीमांसा, वैशेषिक ओर अदरैत- वेदान्त के विन्दुओंसे बने हृए वगं के बीच अवस्थित हैँ। द्रव्य, गुण, कमं ( क्रिया ) ओर सामान्य ( जाति ) इन चार पदार्थो को मानते हुए वे शब्द-ब्रह्म को ही एकमात्र तत्त्व स्वीकार करते है ।
सांख्य-दशन मे चार प्रकार के तत्व है प्रकृत्यात्मक, विकृत्यात्मक, उभयात्मक ओौर अनुभयात्मक । इनका विचार इय ग्रन्थे विस्तृत रूपमे किया गया है 1 योग-शाख्र इससे पृथक् नहीं जाता । अद्ैत-वेदान्त मे पदार्थं एकात्मक है। वह॒ आत्मा या ब्रह्म-स्वलह्प है ! द्वैत की प्रतीति तो अनादि अविद्या के कारणं कत्पितहै। तो, दक् ओौरद्श्यके भेदसरे दो पदार्थं हुए इक्- पदाथं के तीन भेद है--ईद्वर, जीव ओर साक्षी अज्ञान की उपाधि से युक्त ईदवर है जिसके ब्रह्म, विष्णु ओर महेश ये तीन भेद दहै। अन्तःकरण ओर उसके संस्कार से युक्त अज्ञान वाला पदाथ जीव है। ईखवर या जीवही
(+ )
उपाधियो से युक्त होकर साक्षी कहलाता है । जो कुछ दिखाई पड रहाटहै वह् हश्य पदार्थं है । उसके तीन भेद हैँ--अव्याकृत, मूतं ओर अमूतं । अव्याकृत का अथं है--अविद्या, अविद्या के साथ चितु का सम्बन्ध, उसमे चित् की प्रतीति ओर जीवेश्वर का भेद । “अमूतं' शब्द से शब्द, स्पशं आदि सूक्ष्म भूत ओर अन्धकार लिये जाते हैँ क्योकि ये अविया से उत्पन्न हैँ। ये अमूतं अवस्था में ही साच्िक अंश से ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति करते हैँ ओर राजस अंश से कर्मेन्दियों की उत्पत्ति करते है । सवो के सात्त्विकांश मिककर मन कौ ओर राजसांश मिखकर प्राण की उत्पत्ति करते है । तब इन भूतो ( 1616113 ) का आपस मँ मिश्रण अर्थात् पंचीकरण होता है जिससे यह् भौतिक संघार प्रतीत होता है । इस प्रकार इन तत्वों का निरूपण किया जाता है ।
मुख तत्त्वो को जानने से मोक्ष की प्राप्ति होती है ओर मूक त्वो के विक्त खूपों को जानकर उनमें किपटे रहने से प्राणी बन्धन में पड़ा रहता है । बन्धन के विषय मे जानना चाहिए कि संसार म सवो को सुख-दुःख ओर मोह का अनुभव होता है । यही बन्धन है । साख्य ओर योग वाले कहते हैँ कि यह् अनुभव वस्तु- निष्ठ है जव किं वेदान्ती इसे आत्मनिष्ठ मानते हैँ क्योकि सुख आदि मनकी वृत्तिर्या है जो पहले के संस्कार के कारण विभिन्न पदार्थो के ज्ञान से जैसे-तैसे उत्पन्न होती है तथा नष होती हैँ ।
मोक्ष के विषयमे भी दारशंनिकोंकामतभेदहीदहै। चार्वाक स्वतंत्रताया देह-नाश कोही मोक्ष कहते हैँ । शून्यवादी आत्मा का उच्छेद होना मोक्ष मानते हैँ । दूसरे बौद्धो का कथन है कि निर्मल ज्ञान की उत्पत्तिही मोक्षदहै। जेन-सम्प्रदाय वाले कहते हैँ करि कमं से उत्पन्न देह मे जब आवरणन होतो जीव का निरन्तर ऊपर उठते जाना ही मोक्ष दै। रामानुज-सम्प्रदाय में ईदइवर के गणो की प्राप्ति ओौर उनके स्वरूप का अनुभव करना मोक्ष है । दैत-वेदान्त में दुःख से भिन्न पूर्णं सुख की प्राप्ति ही मोक्षहै। इस अवस्था मे भगवान् के केवल तीन गुण नहीं मिलते, संसार का कर्ता होना, लक्ष्मी का पति होना ओर
श्रीवत्स की प्राप्ति- नहीं तो मोक्षावस्था में जीव को सब कुछ मिल जाता है।
पाशुपत-दर्शन मे परमेश्वर बन जाना, शेव-दशंन मे शिव हो जाना तथा प्रत्य- भिन्ना मे पूणं आत्मा की प्राप्ति को मोक्ष माना गया है। रसेदवर-दरन कहता हैकिरससेसेवनके देह का स्थिर टो जाना, जीते जी मुक्त हो जाना मुक्ति है । न्याय-वेरेषिक मोक्ष को प्रायः अभावात्मक शब्दोमेंलेते हँ । वेशेषिक कहते है कि सारे विशेष गृणों का नाश दहो जाना मोक्ष है जब किं नैयायिक आत्यन्तिक दुःख-निवृकत्ति को मोक्ष मानते दहैँ। यह दूसरी बात दहै कि कुछ नैयायिक न केवल टुःख-निवृत्ति को, प्रत्युत सुख को भी मोक्षमें ही च्तेहैँ। मीमांसकं के
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यहाँ विविध वेदिकं कर्मो के द्वारा स्वगं आदि की प्राप्ति ही मोक्ष दै । वैयाकरणो ॥॥ कोधारणाहै करि मूरचक्रमें स्थित परा नामक ब्रह्मरूपिगी वाणी का दत ॥॥ करलेनाही मोक्ष है । सांख्य-दशंन में प्रकृति के उपरत हो जाने पर पुरुष का अपने रूप में स्थित दहो जानादही मोक्ष माना गया है । उधर अपना काम पूरा करके सत्त्व, रजस् ओौर तमस्, ये तीनों गुण भी मूयग्रकृति मे आत्यन्तिक रूप से | विलीन हो जाते दहै ओर प्रकृति को भी मोक्ष मिर्तादहै। योगदश्चन मानतादै (| कि चितु-शक्ति निरुपाधिक रूप से अपने आप में स्थित हो जाती है तो मोक्ष होता । है। अन्त मे अद्रतवेदान्तमे शंकराचायंका कहनाहै कि मूर अज्ञान के नष्ट हो जाने पर अपने स्वरूप की प्राप्ति अर्थात् आत्मसाक्षात्कार ही मोक्षटै। इस । प्रकार दर्शनों मे अन्तिम तत्त्व ( पुरुषाथं ) मोक्ष का सम्यक् निरूपण किया गया | है। यहा केवर दिशा-निदेश अथवा पाठकों की रुचि उत्पन्न करनेके किए 1 | । सारांश दिया गया है।
| || अपनी अग्रेजी-भूमिकामे दशनां के तारतम्य का संक्षिप्त विवरण मेने | | दिया है। अतः यहाँ पर पूनरक्तिसे बचने के लिए केवल यही प्रतिपादित || करना लक्ष्य है कि माधवाचायं का उक्त द रन-संग्रह लिखने का क्याखक्ष्यदटै? | ||| यह सव॑मान्य सत्य है किं माधवाचायं का अपना दर्शन अद्वैत-वेदान्त ही थां । ||| इसी की स्थापना के लिए उन्होने अन्य दशनो को भी यथा्थंल्पमे रख कर ॥|| उनकी अपेक्षा शांकर-दशंन को प्रधानता दीदहै। यह हम प्रत्येक दशन के | आसम्भमें देखते ह कि विगत दशन का शण्डन करके किसी दशन की नींव | रखते हैँ । इस तरह क्रमशः दशनो की मान्यता वे बढ़ाते चलते हँ ।
||| दुसरे दशंन-प्रन्थों मे सवंदशंनसंग्रह की तय्ह क्रम नहीं रखा गयादहै। (4 । प्रायः लोग नास्तिक दशनो के बाद क्रमशः आस्तिक दशनोंका विचार करते | ॥ है। कारण यही होतादै कि उन्हं किसी दर्शन से कुछ लेना-देना नहीं है पर ।॥| | माधवाचाये को तो अपने लक्ष्य को सिद्धि करनी थी अतः उन्होने एक विशेष ||| क्रम का निर्वाह किया है। ॥| | अद्ैत-वेदान्त भारतवषं का सवसे अधिक मान्य दशन है। माधवाचार्य | | इसीलिए इसे सब दर्शनों का शिरोमणि मानते हँ ओौर उस पर उन्होने बहुत अधिक ॥| , विचार क्यादै। इस पर उठाई गई सारी आपत्तियों का पाण्डित्यपुणं खमाधान | | । लोका ह है, ल पदो क विवेचन को तिकौजलि देकर भौ उवे चान्तो | |॥ कौ स्थापना कीटहै। अतः सरवंदर्शनसंग्रहको न केवल दर्शनों का संकलन समञ्च । | | ्रत्युत एक प्रबन्ध ग्रन्थ ( 1106818 ) के रूपमे ले सकते हँ जिसमे अद्वैत-मत | । | की प्रतिष्ठा की गरईदहै। यह बहुत आवद्यकथा कि अद्वैत की स्थापना उख ।
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समयमे विद्यमान सारे दाशंनिक सम्प्रदायोंके पूरे परिप्क्ष्यमे कीजाय। अतः “आ ग्रार्चः सिक्ताः पितरख्च प्रीणिताः" के अनुसार एक ही साथ दो-दो काम हो गये--दशंनों का संग्रहभी हो गया ओर उनके बीच अद्रैत-वेदान्त की क्या महत्ता है, यह भी जान गये ।
अन्त में हम प्रस्तुत ग्रन्थ के केखक माधवाचार्य के विषयमे भी विचार करले। दक्षिणभारतमें तुंगभद्रा नदी के किनारे पम्पा-सरोवर के समीप विजयनगर मे एकं सुप्रसिद्ध साश्राज्य था जिसमें प्रायः १३५५ ई० के आसपास मे महाराज वृक्क सम्राट् हृएथे। उक्त साघ्राज्य की स्थापना महाराज हरिहर प्रथम ने माधवाचार्य की ही प्रेरणा से कीथी। माधवाचायं इन दोनों राजाओं के यहां मुख्य मन्त्री के पद पर सुशोभित थे । इनका परिवार बहुत प्रसिद्ध था क्योकि विद्याके कषेत्रम वह बहुत आगे बढा-चढा था । वेदों के प्रसिद्ध भाष्य- कर्ता सायणाचायं इसी वंश में हुएथे। इस वंशका नाम ही सायण-वंशथा। सायण ओर माधव कौ रचनाओंकी तुलना करनेसे हमे माद्महोतादैकि माधवाचायं सायणके बडेभारईथे। इनकेपिताका नाम मायण ओौरमाता कानाम श्रीमती था। ये बौधायन-सूत्र के मानने वाले यजुर्वेदी ब्राह्मण ये। ये सूचनाय माधवाचायं ने पराशर-स्मृति की अपनी व्याख्या में प्रस्तुत की है ।
माधवाचायं को एक दूसरे माधव से भी अभिन्न समञ्लने की भल लोगों ने कीदटहै। माधव नाम के एकं मन्त्री होने की सुचना १३४७ ई० के शिखालेख मे मिलती है जिनकी मृत्यु १३९१ ई०्के बाद हुई थी। इसप्रकार प्रायः ४५ वर्षो की अवधि तक इन्होने मन्त्री का कायं उत्तरदायित्वपूर्वक संभालाथा।ये अद्वितीय योद्धा ये क्योकि इनके लिये लेव मे “भुवनेकवीरः' का विरुद मिलता है। परदिचमी समुद्र तट पर स्थित कोकण-प्रदेश में तुरुष्को ( तुर्क ) का उपद्रव जोर-शोर से चल रहा था । उन्होने उसकी राजधानी गोमन्तक ( आधुनिक गोआ ) के धार्मिक स्थानोंको नष्-श्ष्ट करना प्रारम्भे करदियाथा। माधव ने उनसे लोहा लिया ओर उन्हे परास्त करके उस स्थान पर फिरसे धमकी प्रतिष्ठा की। महाराज वक्त माधवसे इस कायं से इतना प्रसन्न हुए कि उन्हे वनवासी अर्थात् जयन्तीपुर का शासक बना दिया । अपने प्रासन से माधव ने प्रजा का हृदय जीत ल्यिा। गोजाके शासकके रूपमे १३१२ शक संवत् ( १३९० ६० ) मे उन्होने कुचर नाम गाव अग्रहार (जागीर) में ब्राह्यणो को
-- व्यङक्काष्यकयककस्यकचककस्क्छसमम मि श प
‡ दे° बलदेव उपाध्याय, आचायं सायण ओौर माधव, प° १३३ तथा आगे
( ॐ.
दे दिया । किन्तु ये विजेता माधव माधवाचायं से भित ह। माधवाचायं ओर माधव मन्त्री दोनों के व्यक्तित्वो मे बड़ा अन्तरभीहै। दोनों के माता-पिता तो भिन्न ये ही, उनके गोत्र भी पृथक् थे 1 यदी नही, उनकी मृत्यु के समय ने भी अन्तर है। माधवाचायंने बुक्र के शासन की समाप्ति ( १३७९ ) के कुछ पूवं ही संन्यास प्रहण कर ल्ियाथा ओर श्युगेरी मठ मेँ प्रतिष्ठित हो चुके थे ।. उधर यहं दान-पत्र १३९५० का है अतः दोनों मे कोई तारतम्य दिखलाई नहीं पडता । फिर भी माधवाचार्य महाराज बुक्घ के यहाँ मख्य मन्त्री ये तथा दूसरे माधव मन््रीसे भिन्नये। श्छुगेरी मढम माधवाचायं वाद मे विद्यारण्यकेनामसे शंकराचायं बन गये थे। विद्यारण्य के विधय में अहोबल पण्डित ने अपने तेटुगु-व्याकरण में ठिखा टै-
वेदानां भाष्यक्त विन्रृतमुनिवचा धातुचरत्तेविधाता, परोचद्धिययानगर्या हरिहर रपतेः सावेभोमत्वदायी । वाणी नीलादिबेणी सरसिजनिलया किंकरीति प्रसिद्धा, विद्यारण्योऽश्रगण्योऽभवदखिलगुरूः हाकरो वीतङाङ्ः ॥
इससे माधवाचायं ( विद्यारण्य ) के विषय में सूचना प्राप्त होतीदहैकिये ही माधवीयधातुवृत्ति के भी रचयिता थे । विद्यारण्यके रूपमे भी इन्टोने बहुत से ग्रन्थ लिवे थे जैसे- पंचदजी, वैयासिक-न्यायमाला आदि ।
यह किंवदन्ती है क्रि माधवाचायंने ही वृक्क के बड़े भाई हरिहर प्रथम को विजयनगर-साम्राज्य की स्थापनाका पराम दियाथा। उस समय उस स्थान का नाम विद्यानगर रखा गया थां बाद मे धीरे-धीरे वह विजयनगर हो गया \. यह किसी घटना से या भाषाविज्ञान से अनुप्राणित हुआ होगा । हरिहर कौ तयु के परचात् माधवाचायं बुक के गुरु बने ओर उस समय शिष्य के आदेश से उन्होने बहुत से न्थ क्वे । संन्यास की अवस्था मे ये प्रायः १३७९ ई० से १३०८५ ई० तक रहे 1 मृत्यु के समय इनकी अवस्था प्रायः ९० वर्ष॑कीथी( १३८५ ) । अतः माधवाचायं का जीवन-काल १२९५ ई० से १३८५ ई० तक मानना ठीक है
माधवाचायं ओर सायणाचायं ने अपने गुरुभं का उल्लेख बहुत श्वद्धा से करिया है । इनके तीन गुर ये--विद्यातीर्थ, भारतीतीथं ओर श्रीकण्ठ । भारतीतीथं माधव के दीक्षागुरु ये जिनकी मृत्यु के पश्चात् (१३८० ई०) माधव (विद्यारण्य) दंकराचा्यं के पद पर आये। विद्याती्थं ओर श्रीकण्ठ इनके विद्यागुर थे 1 सायण ने वेदभाष्यों के आरंभ मे विद्यातीथं का नाम देते हुए उल्लेख किया है कि
( ४३ ) बृक्रराय ने माधवाचायं को वेदभाष्य करने का आदेश दिया तो उन्होने यह्
| काम अपने छोटे भाई सायण को सौँप दिया ।#
परम्परा से चले आते हुए माधवा चायंकृत सवंद शंनसंग्रह॒ को सायण् के बडे भाई की रचना माननेमे कुछ लोगों ने विवाद खड़ा कर दिया है। उनका कहना है कि माधवाचायं के किंसी गुर का उल्लेव सवंदशंन मे नहीं मिलता, मंगलाचरण मे केक ने शाद्धपाणिके पुत्र किसो सवंज्ञविष्णु नामक गुका उल्लेख किया है । दूसरे, केक अपने को “सायणदुग्धान्िकोस्तुभः कहता है जिससे वह सायण का पुत्र प्रतीत होतादै। सयणके तीन पत्रों मे कम्पण, मायण ओर शिद्धणथे। कुछ लोगो का कहना है कि द्वितीय पत्र मायणदही माधव के नाम से प्रसिद्ध थे । अतः यह ग्रन्थ सायणके पुत्र की कृतिदै।
ध्यान से विचार करने पर यह मत समीचीन प्रतीत नहीं होता क्योकि सायण उक्त वंश काभी नाम था जिसमे माधव हुएथे। वंशके नाम पर उन्होने अपने को सायणमाधव कहा है तथा सायण-वंश रूपी क्षीरसागर मे उत्पन्न कौस्तुभ से अपनी तुलना की है । एसा साहस माधवाचार्य के अलावे ओर किसीमें संभव नहीं था । किसी एक व्यक्ति से उत्पन्न होने के लिए (दुग्धान्धिकौस्तुभ' का विशेषण कगाना भी ठक नहीं है । अब रही बात गुखकी। किसी व्यक्तिके कईं नाम होने मे कोई आश्चयं की बातत नहीं है । कहते हँ कि पुण्यदलोकमंजरी मे विद्यातीथं के इस दुसरे नाम स्व्॑ञविष्णु का उल्केव भी है। अतः किसी भी दशा में यह सिद्ध है कि वेयासिकन्यायमाला, विवरणप्रमेय, जैमिनीयन्यायमाला तथा पंचदशी- जसे सफल ग्रन्थों के ठेखक माधवाचायं ही इसके रचयिता है ।
माधवाचायं के पाण्डित्य के विषय में तो कुछ कहना ही नहीं । परिशिषठ-३ में दी गई सूची ही उसका निर्णय करती है कि परोक्षया अपरोक् मे कितने म्रन्थों ओर ग्रन्थकारो से उनका परिचय था। केवल यही कटु देना उनकी जिज्ञासु परवृत्तिका बोधकहो सकेगा कि अपने काकमें ही उत्पन्न वेदान्तदेशिक ओर जयतीथं आदि ग्रन्थकारो का भी उन्होने उल्लेव किया है । भारतीय दर्शन-शाख्र के इतिहास मे सवंदर्शंनसंग्रह अद्टितीय ग्रन्थ है क्योकि इसमे दर्शनों के रहस्यों
का उदुघाटन किया गया है ।
#* यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिरं जगत् । निम॑मे तमहं वन्दे विद्यातीथंमहेदवरम् ॥ यत्कटाक्षेण तदरपं दधदुबुक्कमहीपतिः । आदिशन्माधवाचायं वेदा्थंस्य प्रकारने ॥ स प्राह नृपति राजनु सायणार्यो समानुजः। सवं वेत्येष वेदानां व्याख्यातृत्वे नियुज्यताम् ॥
~
जानिः भक + 29 9;
ड = --- न्य 9 0
~ + स 9 = ह -- कक
८ )
सर्वदर्शनसंग्रह का उद्धार करने मे महामहोपाध्याय १० वासुदेवा अभ्यंकर का नाम सबसे आगे की पंक्ति में रखा जाता है। अपनी संस्कृत-टीका से युक्त संस्करण मे उन्होने जैसे अध्यवचाथ का प्रदर्शन किया टै वह अन्यत्र दुलभ है । पाण्डित्यपूणं उपोद्धात में दशनो का मन्यन करके उन्होने नवनीतः रूप सार-संकलन का भी प्रयास किया दै । सच पूछेतोआगेकी पीढी के लिए उन्होने बहुत-सा काम सरल कर दियादहै। उक्त महामनीषी के ग्रन्थ को उपजीव्य मानकर ही यह संस्करण प्रस्तुत किया गया है अतः उनके सम्मुख म नतमस्तक हं 1 इसक्ते अतिरिक्त कवि ओर गफ के अनुवाद एवं डं खवपज्ञी राधाङ्ृष्णन् तथा ं ° धीरेन््रमोहनदत्त की पृस्तकों से जो अंगरेजी शब्दावलियां ली गई हँ इसलिए में उनका कृतज्ञ हूं ।
प्रस्तुत व्याख्या मेरे चार वर्षो के अध्यवसाय का परिणाम है । इस अवधि मे विभिन्न स्थानों के सहयोगियो, शुभाभिलाषियो एवं शिष्यो से इस कायम जो प्रेरणा मिलती रही है वही मेरा सबसे बड़ा बल रहादहै। यद्यपि इसे सुन्दर, सरल ओर आधुनिक बनने की पूरी चेष्ट कीग्ईटहै फिरभी दोष रह जाना स्वाभाविकदहै। प्रंथके विषय तथा आकार के अनुरूप विशद भूमिका नहींदे सका, पाठक क्षमा करंगे। इस परतो पृथक् रूप से भूमिका लिली जानी चाहिए जो भारतीय दशंन-साहित्य के अध्ययन मे अनिवायं भी मानी जाय। प्रस्तुत भूमिका तो परम्परा का निर्वाह मत्र हे।
काशी हिन्दूविरवविद्याख्य के संस्कृत-विभाग के अध्यक्ष आदरणीय डा० सिद्धेदवर भदराचायं जी ने इस कृति का निरीक्षण करके जो प्राक्कथन लिखने कीकरपाकी दहै, उसके लिए मँ आपका हृदय से आभारी हं । सवेतन्त्रस्वतन्तर पूज्यपाद स्वामी श्रीमहेश्व रानन्द सरस्वती ( पूर्वाश्रम-- कविताकिकचक्रवर्ती पं० महादेवशाखरी ) जी ने जो प्रस्तुत ग्रन्थ को अपने आशीवंचनों से अलंकृत किया है इसे मै अपना भागधेयोत्कषं अथवा आपकी अहैतुकी दया ही मानता हूं ।
वाराणसीस्थ बृहत्तर प्रकाशन-संस्थान चौखम्बा संस्कृत सीरीज के अध्यक्ष बन्धुओं ने इतने बडे ग्रन्थ का प्रकारन-भार लेकर मेरे सदुदुदेश्य कौ सफलता मे जो तत्पर सहयोग दिया है उसके लि मेँ उन्ह हृदय से धन्यवाद देता हूं ।
यदि यह् कृति पाठकों के तनिक भी काम आई तो मेँ अपना परिश्चम सफल समर्ुगा र
काशौ | 4 छ --उमाशंकरश्चमों “ऋषिं
विषय-सूची
१ एवगटण्छात ; 7. 9. 8141186019798 १-२
२ आशीवंचन : स्वामी महेरव रानन्द सरस्वती ३-६ ३ 1717000107 १-२३ ४ पू्ंपीठिका २५-४४ ५ सवंदशनसंग्रह १-८९१ (१) चार्वाक-दरोन ३२-२५ १ चार्वाक ओर लोकायतिक- नामकरण ३ 1 २ ततत्व-मीमांसा 1 ध ३ सुख की प्राप्ति- दुःख ओौर सुख का मिश्रण ५ $. | ४ यज्ञो ओर वेदों की निस्वारता ७ 4 ५ ईश्व र-मोक्ष-आत्मा ९ ¢ | ६ मत-संग्रह १० र: ७. अनुमान-प्रमाण का खण्डन १० ^ = प्रत्यक्ष द्वारा व्याप्तिज्ञान नहीं हौ सकता १३ 0. ९ अनुमान ओर शब्द से व्याप्तिज्ञान नहीं हो सक्ता १४ 8 १० उपमानादि से भी व्याप्ति संभव नहीं १६ 4 क. व्याप्तिज्ञान का दूसरा उपाय भी नहीं टै १७ ¢ . ११ व्याप्तिज्ञान ओर उपाधिज्ञान में अन्योन्याध्रशदोष २१ ई १२ लौकिक-व्यवहार ओर वस्तुं २१ चार्वाक-मत-सार २२ ( २) बोद्ध-दशेन २६-१०३ १ चार्वाक-मत का खण्डन-~व्याप्ति कौ सुगमता २६ २ अन्वय-व्यतिरेक से व्याप्िज्ञान संभव नहीं २७ ३ तदुत्पत्ति से अविनाभाव का ज्ञान-पंचकारणी ३० ४ तादात्म्य से अविनाभाव का ज्ञान ३१ ५ अनुमान का खण्डन करने वालों को उत्तर ३२ ् ६ बौदढदशंन के चार भेद-भावनाचतुष्टय ३५ ७ क्षणिकत्वं की भावना-अ्थंक्रियाकारित्व ३८ ठ अक्षणिक पदार्थं का क्रम" से अथेक्रिय।कारी नहीं होना ४१
९ सहकारियों की सहायता पाकर भी अक्षणिक अर्थक्रियाकारी नहीं
हो सकता ४३
= ४६ ) | || | १० अतिशय का दूसरा अतिशय उत्पन्न करने में दोष ४६ । 4 ११ दूसरा अतिशय उत्पन्न करने मे अनवस्था सं° १ ४७ | क. अनवस्था सं° २ त 4 ॥ | ख. अनवस्था सं० ३ ४९ । ॥ १२ स्थायी भाव से अतिशय के अभिन्न होने पर आपत्ति ^ 9 । १३ अक्षणिक पदाथं का "अक्रम" से अथंक्रियाकारी नहीं होना ५० | ॥ क. असामर््य-साधक प्रसंग ओर उसका विपयंय ५१ ॥ ख. साम्यं-साधकं प्रसंग ओर तद्विपयंय ५३ | १४ निष्कर्ष क्षणिकवाद की स्थापना ५४ | || १५ सामान्य का खण्डन ५६ । | १६ दुःख ओर स्वलक्षण कीभावनाये ` ६१ | १७ शून्य की भावना-माध्यमिक-सम्प्रदाय ६१ | | १८ योगाचार-मत-- विज्ञानवाद ६७ , | १९ बाह्य पदां का खण्डन क ६८ 1 २० बुद्धि का स्वयं प्रकारित होना ७० | | २१ सौत्रान्तिकि-मत- बाह्यार्थानुमेयवाद ७४ । ॥|। | २२ बाह्याथं की सत्ता- निष्कषं ७९ | ॥॥ २३ बाह्यां प्रत्यक्ष नही, अनुमेय दै ७९ {|| २४ आल्य-विज्ञान ओर प्रवृत्ति-विज्ञान ८9 | २५ विज्ञानवादियों के मत पर दोषारोपण ८३ १. २६ ज्ञान के चार कारण | ८५ |॥ ॥| २७ चित्त ओर उसके विकार पाँच स्कन्धं ८७ || २८ चार आयं सत्य--दुःख, समुदाय, निरोध, मार्ग तण || क. हेतुपनिबन्धन समुदाय का स्वरूप ॑ ९० | ६. २९ सौतान्तिक-मत का उपसंहार ९३ ।॥॥ ३० वेभाषिक-मत-- बाह्याथंप्रत्यक्षत्वाद ९४ | ।॥ ३१ निविकल्पक प्रत्यक्ष ही एकमत्र प्रमाण है ९८ । | ३२ तत्व की अभिन्नता-- मागो मे भेद १०० | । | ३३ द्वादश आयतनो कौ पूजा १०१ ॥ ३४ वौद्ध-मत का संग्रह १०१
| (२ ) आरेन-द्दौन ( जेन-दरन ) १०७-१७९. 1 ॥ । १ क्षणिक-भावना का खण्डन १०४ । । २ क्षणिक-पक्ष में बौद्धो की युक्ति १०५
आ @ 49 +< ० ५
९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २६१
२९
२३
३1 र् २६
(७ ) जनों के द्वारा उपयुंक्त-मत का खंडन क्षणिकवाद के खंडन की दूसरी विधि क्षणिकत्व-पक्ष में ्राह्य-ग्राहक-भाव न होना ज्ञान का साकार होना ओर दोष अर्हंत्-मत की सुगमता, अहत् का स्वरूप अर्हत् के विषय में विरोधियो की शंका अर्हत् पर मीमांसकों की शंका का समाधान नैयायिको की शंका ओर उसका उत्तर सावयवत्वं के पाँच विकल्प ओर उनका खण्डन ईइवर कै कर्ता बनने पर आपत्ति सर्वज्ञ की सिद्धि त्रिरत्नों का वणंन- सम्यक् दशन सम्यक् ज्ञान ओर उखके पाच रूप सम्यक् चारित्र ओौर पांच महाव्रत प्रत्येक ब्रत की पाच-्पांच भावनायं जेन तच्व-मीमांसा-- दो तत्व पाच तच्व-- दुसरा मत कालभीषएकद्रन्यहै सात तत्व- तीसरा मत क. बन्ध का निरूपण बन्धन के कारण क. बन्धन के भेद संवर ओर निर्जरा नामक तच््व कं निजेरा । मोक्ष का विचार जेन न्यायशाखर- सप्तभंगीनय जनमत-संग्रह
(४ ) रामादज-दर्खन ( विशिषाद्रेत-वेदान्त )
१
"< ० ५ <)
अनेकान्तवाद का खण्डन सप्तभंगीनय की निस्सारता जीव के परिमाण का खण्डन रामानुज-दशंन के तीन पदां
च सं क अदटत-वेदान्त का इस विषय में पूर्वपक्ष
१०७ १०९ ११४ ११५ ११९ १२० १२४ १२७ १२९ १३३ १३५ १३६ १३७ १४० १४२ १४३ १४९ १५४ १५५ १५८ १५९ १६० १६४ १६६ १६७ १६९ १७७ १८०-२४५ १८० १८३ १८४ १८६ १८७
| | # . ( ४८ ) ॥॥| ६ रामानुज द्वारा इसका खण्डन १९३ | ॥ | ७ अज्ञान को भावरूप मानने मे अनुमान ओरं उसका खण्डन १९५ ॥ क. उप्यक्त अनुमानं का प्रत्यनुमान १९७ | ॥॥ | ~ भावरूप अज्ञान मानने मे भरति प्रमाण नही है १९९ |॥ | ९ अज्ञान की सिद्धि अर्थापत्ति से भी नही-- त्वमसि" का अथ २५०१ | || १० (तत्वमसि' मे लक्षणा--अदत-पक्ष २०२ | 4 | || ११ रामानुज का उत्तरपक्ष २०४ | || १२ सभी शब्द परमात्मा के वाचक है २०६ | 1 | | || : १३ निविशेष ब्रह्म की अप्रामाणिकंता । २११ | | | | १४ प्रपंच की सत्यता २१२ ( ||| १५ निगंणवाद ओर नानात्वनिषेध की सिद्धि २१५ | ॥ || १६ रामानुज-मत की तत्त्वमीमांसा २१६ । (|| क. चित्, अचित् ओर ईव र के स्वभावं २१७ | ||| ख. जीव का वणन २२० | (||| ग. अचितु का निरूपण | २२२ | (||| ` १७ ईङवर का निरूपण--उनकी पाँच सूतिं २२३ ॥ | | १८ उपासना के पाँच प्रकार ओर मुक्ति २२६ || | | १९ ब्रह्मसूत्र की व्याख्या-- प्रथम सूत्र २२८ || क. कमं के साथ ब्रह्म का ज्ञान मोक्ष का साधन दहै २२९ | | || २० ब्रहम-जिज्ञासा का अथं २३३ || २१ भक्ति का निरूपण २३७ || || २२ द्वितीय सूत्र- ब्रह्म का लक्षण २४१ ।॥|| २३ तृतीय सूत्र-त्रह्मके विषयमे प्रमाण २४२ ॥|| | चतुथं सूत्र-- शाखं का समन्वय २४३ | | | | (५ ) पृणेप्ज्ञ-दशोन ( देत-वेदान्त ) २४६-२९द || | ॥ | ्रेतवाद की रामानुजमत से समतां ओर विषमता २४६ ||| २ द्ेतवाद के तत्त्व भेद की सिद्धि २४७ ||| ३ प्रत्यक्ष से भेद-सिद्धि- शंका २४९ | ॥| क. प्रत्यक्ष से मेद-सिद्धि-समाधान २५१ || ४ धममंभेदवादी का समर्थन--भेद की सिद्धि २५७ ॥। ५ अनुमान-प्रमाण से भेद की सिद्धि २६१ | | | | ६ ईश्वर की सेवा के नियम २६३
॥ | ¦ क. नामकरण ओर भजन २६५
१२ १३ १४ १५ १६ १७ १८
( ४९ ) श्रुति-प्रमाण से भेद की सिद्धि माया का अथैत का प्रतिपादन ईरवर की सव च्कष्टता के अन्य प्रमाण मोक्ष ईइवर के प्रसादसे ही मिखताहै तत्वमसि" का अथं ॑ क. तत्त्वमपि का दसरा अथं ख. उक्त नव हण्नान्तों से भेद-सिद्धि एक के ज्ञान से सभी वस्तुओं का ज्ञन--इसका अर्थं मिथ्या का खण्डन ब्रह्मसूत्र के प्रथम् सूत्र का अथं ब्रह्म का लक्षण
ब्रह्म के विषयमे प्रमाण
रास्नोका समन्वय पृणंप्रज्ञ-दशंन का उपसंहार
( ६ ) नकुलीरा-पादपत-दर्न
१ २
@ + +< ज ५
ठ ९
वेष्णव-दर्शनों मे दोष
पायुपत-सूत्र की व्याख्या-- गुरु का स्वरूप क. सूत्र के अन्य शब्द--अतः, पति आदि दुःखान्त का निरूपण
कायं का निरूपण
कारण् ओर योग का निरूपण
विधि का निरूपण
समासादि पदाथं ओर अन्य शातनं से तुलना निरपेक्ष ईहवर की कारणता
ईदवरके ज्ञान से मोक्ष-प्राप्ति
( ७ ) रोव-दरान
नि
२
५६
रोवागम-सिद्धान्त के तीन पदार्थं
पति" का निरूपण
क. ईदवर को कर्ता मानने मे आपत्ति ओर समाधान ईरवर का शरीर-धारण
जीव के तीन भेद क, विज्ञानाकल जीव के दो भेद
२९६६ २६७ २७० २७१ २७३ २७५ २७७ २७९ २८३ 4-1~ २९० २९१ २९३ २९४
२९७२३१९
२९७ २९९ ३०३ ३०५ ३०७ २३०९ ३१० २३१४ ३१५ ३१९ २३२०-३४६ ३२० ३२३ २३२४ २३२८ २३२ ३३१५ ३२३
य क न्क
। |
| ||| ( ५० ) | | | { ख. प्रल्याकल जीव केदो भेद ३३८ ॥ | | ग. “सकल' जीव के भेद ३४१ ||| ६ पार" पदार्थं का निरूपण ३४३ | | | | `. ७ उपसंहार ३४६ ॥॥ | ( ८) ्रव्यभिज्ञा-द्न ( काश्मीरी ओव-द्रेन ) २५७-३७४ | | १ प्रत्यभिज्ञा-द्शंन का स्वरूप ३४७ । ॥ ॑ २ प्रत्यभिज्ञा-दशन का साहित्य | ३४९ । 1 || ३ प्रथम सूत्र को व्याख्या ३५२ | ॥॥ | क. 'अपि' ओर "उप शब्दों के अथं | ३५५ । 1} ॐ प्रत्यभिज्ञा के प्रदर्शन की आवश्यकता ३५८ | ( | ५ ज्ञानशक्ति ओर क्रियाशक्ति : ३६१ | (||| ६ वस्तुओं का प्रकाशन--आभासवाद् ३६२ | ॥ ७ ईदवर की इच्छा से संसा रोत्पत्ति ` ३६५ | ॥॥ | ८ उपादान कारण ओर पदार्थो की उत्पत्ति "9 | || ` ९ विभिन्न प्रहन--जीव ओौर संसार का संब॑ध ३६९ | || क. प्रमेय को लेकर वद्ध ओौर मुक्त मे भेद ३७० | ||| ~ ` १० प्रत्यभिज्ञा की आवद्यकता-- अथंक्रिया मे भेद ३७० १ | | | ११ उपसंहार ३७३ ॥|| (९ ) रखेश्वर-दरोन ( आयुवेद्-द्शेन ) ३७५-३९० | ॥ | १ रख से जीवन्मुक्ति-पारद ओर उसका स्वरूप ३७१५ ||| २ जीवन्मुक्ति की आवश्यकता ३७६ || | ३ हर-गौरी की बृष्टि पारद, अश्क ३७८ | | ॥ ¦ + रस की सामथ्यं से दिव्य-देह् की प्राप्ति ३७९ | | | ५. दो प्रकार के कमे-योग | ` ३८० | || ६ पारद के तीन स्वरूप- मूत, मृत ओर बद्ध ३८१ ॥| ७ रके अष्टादश,संस्कार ३८१ ||| | ८ देहवेध ओर उसकी आवश्यकता ३८३ ||| ९ जीवितावस्था में मुक्ति देहवेध के विषय में शंका ३८४ ॥|1 | १० जीवितावस्था में मुक्ति एक वाद | ३८५ | || ११ शरीर की नित्यता - इसके प्रमाण | ३८६ ॥ || १२ पारद-रख के सेवन से जरामरण से मुक्ति ; ३८ | १३ पारद-किगि की महिमा ् ३८८
ॐ { क ् च क -द 11: ~ 7 ^ ~ (५ ( = 4... ( ष्य्पू ) 1 6 मौ ॥ भ ५
१४ पुरुषां ओर ब्रह्म-पद ३८९
१५ रस ओर परब्रह्म में समता-रसस्तुति | ३९०
( १० ) ओटक्य-द्शन ( वेरोषिक-दर्सन ) २९१-७४८
१ दुःखान्त के लियि परमेडवर का साक्षात्कार ३९१
२ वशेषिक-सूत्र की विषय-वस्तु २९६
३ शास्र की प्रवृत्ति--उदहेश, लक्षण, परीक्षा ३९८
॥ ४ पदार्थोकी संख्या- छह या सात ४०१ ५ छह पदार्थो के लक्षण-- द्रव्यत्व ओर गुणत्व ४०३
क. क्म॑टव, सामान्य, विशेव ओर समवाय ४०७
६ द्रव्य के भेद ओर उनके लक्षण ४१०
४ ७ गण के भेद ओर उनके लक्षण ४१६ वु ८ कृं आदिकेभेद ४१७ ड ९ द्वित्व आदि की उत्पत्ति का विवेचन ४१९ ॥ कृ. द्वित्व की उत्पत्ति का क्रम ४२० ख. द्वित्व की निवृत्ति का क्रम ४२२
ग. अपेक्षाबुद्धि का लक्षण ४२७
१० पाकजं पदार्थं की उत्पत्ति ४२८
११ विभागज विभागका विवेचन ४३१
क. विभागज विभागका दूखरा भेद ४३७
१२ अन्धकार का विवेचन ४३८
१३ अन्धकार के विषय में वेशेषिक-मत ४४२
१४ अभाव का विवेचन ४४४
( ११ ) अक्षपाद-दशेन ( न्याय-दद्यन ) ४४९-५१२
१ न्याया की रूपरेखा ४४९
२ प्रमाण का विचार ४५४
३ प्रमेय-पदाथंका विचार ४५९
४ संशय, प्रयोजन ओर दृष्टान्त । ४६३
क. सिद्धान्त ओर अवयव ४६५
५ तकंका स्वरूप ओर भेद ४६७
क. निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा ४६९
ख. हैत्वाभाख ओर छल ४७०
६ जाति ओर उसके चौबीस भेद ४७५
क. निग्रहुस्थान ओर उसके वाईस भेद | ४८३
( ५२ )
| || ७ न्याया का नामकरण ४८७ ॥ | ८ अपवर्गं के साधन- न्याय का द्वितीय सूत्र तत ॥ | ९ मोक्ष का स्वरूप-- माध्यमिक मत ४९२ | | क. मोक्ष के विषय में विज्ञानवादियों का मत ४९४ | | १० जेनोंके मतसे मोक्ष का विचार ४९१५ ॥ | ११ चार्वाक ओौर सांख्य-मत मे मोक्ष ४९७ । | ॥ क. मीमांसा-मत से मृक्ति-विचार + ~ 1॥ १२ नेयायिक-मतसे मुक्ति-विचार ४९९ | | ॑ १३ ईश्वर की सत्ता के लिए प्रमाण पूवंपक्ष ५०१ | | क. नैयायिकं का उत्तर-ईङ्वरसिद्धि ५०३ | | ख. कर्ता का लक्षण तथा ईदवर का कतृत्व ५०६ ॥। १४ ईद्वर के द्वारा संसा र-निर्माण-- पूर्वपक्ष ५०८ ॥ | | १५ ईइवर के द्वारा संसार-निर्माण-सिद्धान्त ५१० | | ( १२ ) जेमिनि-द्शेन ( मीमांसा-द्र्श॑न ) ५१३-५५द् || १ मीमांसा-सूत्र की विषय-वस्तु ५१३ ॥ | | २ प्रथम सूत्र तथा अधिकरण का निरूपण ५२१ | | ३ भाटरमतसे अधिकरण का नि्पण ५२२ | | | क. पूवंपक्ष- शास्रारम्भ ठीक नहीं ५२३ । ४ सिद्धान्तपक्ष-शाख्रारम्भ करना सर्वथा उचित है ५२९ ॥ ॥ क. अध्ययन-विधि का लक्ष्य अर्थबोधदहीदहै ५३० ॥ | ५ सिद्धान्तपन्न का उपसंहार ओौर संगति का निरूपण ५३३ । | ६ प्रभाकर के मत से उक्तं अधिकरण का निरूपण ४३४ | | क. प्रभाकर के मतसे पूर्वपक्ष ५३८ || ख. प्रभाकर-मत से सिद्धान्तपन्ष ५३९ || | ` ७ वेदोंको पोर्षेय मानने वि पूर्वपक्ष का निरूपण ५४१ ||| | क. पौरुषेयसिद्धि का दूसरा रूप ५४५५ ||| ८ वेद अपौरुषेय है सिद्धान्त-पक्ष ५४६ ॥| | | क. पौरुषेयत्व का दूसरे प्रकार से खण्डन ५४८ । | ९ शब्दानित्यत्व का खण्डन < "1 ^ || | १० वेद की प्रामाणिकता--निष्कषं ५५५ ॥|| ११ प्रामाण्यवाद का निरूपण | ५५७ ॥| क. स्वतःप्रामाण्य का अथं-लम्बी आश्चंका ५५९ १२ स्वतःप्रामाण्य की सिद्धि--शंका-समाधान ५६५
क. ज्ञप्ति-विषयक स्वतःप्रामाण्य कौ सिद्धि ५६७
( ५दे )
१३ प्रामाण्य का उपयोग प्रवृत्ति मे नहीं होता--उदयनं ५६८ | कं. इसका खण्डन १६९८ १४ मीमांसा-दशंन का उपसंहार ५६९ ( १३ ) पाणिनि-दरौन ( व्याकरण-दरोन ) ५७२-६१६ १ प्रकृति-प्रत्यय का विभाजन ५७२ २ अथ शब्दानुशासनम्" का अथं ५७३ क. “शब्दानुरासन' पर विचार-विमशं ५७४ ३ शब्दानुशासन से प्रयोजन कौ सिद्धि ५८० ४ व्याकरणशास्न की विधि-- प्रतिपदपाठ नहीं ५८२ ५ व्याकरण के अन्य प्रयोजन ५८५ कृ. व्याकरण से अभ्युदय की प्राप्ति ५५८७ ६ शब्द ही ब्रह्मटै ५९१ क. पद-भेद की संख्या ५९१ ७ स्फोट- नैयायिकों की शंका ओर उसका समाधान ५९३ क. स्फोट पर अन्य शंका-- मीमांसक ५९६ = मीमांसकं की शंका का उत्तर स्फोट-सिद्धि + | कृ. स्फोट पर अन्य आपत्तियां ओर समाधान ६०१ ॑ ९ सत्ता ही शब्दों का अथं टै- पूर्वपक्ष ओर सिद्धान्त-पक्ष ६०३ ू १० द्रव्य को पदार्थं माननेवाों का विचार ६०८ ॑ ११ जाति ओर व्यक्ति को पदाथं मानने वालो का विचार ६१० | १२ पाणिनि के मत से पदा्थ--जाति-व्यक्ति दोनों रै ६१२ १३ अद्रैत ब्रह्मतत्त्व की सिद्धि ६१४ | १४ व्याकरण से मोक्षप्राप्ति ६१५ | ( १४ ) सांख्य-द्शन ६१७-६७८ | १ साख्य-दशंन के तत्तव ६१७ | २ प्रकृति का अथं ६१० | ३ प्रकृति ओर विकृति से युक्त तच्व ६२१ | ४ केवल विकृति के रूप मे वतमान तत्त्व ६२७ | ५ प्रकृति-विकृति से रहित पुरुष-तत्व ६२८ ६ सांख्य-प्रमाण-मीमांसा ६२९ ७ कार्य-कारण-सम्बन्ध पर विभिन्न मत ६३१ क. कायं-कारण-भाव के मतो का खंडन ६३३ ८ सत्कायंवाद की सिद्धि ६३५
कृ. विवतंवाद का खंडन ६२३९
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कजाः # [व न छा = ट ष् कद. ` न > = = ~~ --- ~ न्क चः ==
१) ‡ ज द द) ~ -- 1 ह 3 नः
3 १०
११ १२
( ५४ ) प्रधान या प्रकृति की सिद्धि
प्रधान की निरपेक्षता क. परमेश्वर प्रवतेक नहीं है
परकृति-पुरुष का संबन्ध प्रकृति की निवृत्ति- प्रख्य
( १५ ) पातञ्जल-दशन ( योग-द शेन )
९ र् ४
< 4 +< ०
१० ११
१२ १३ १४ १५ १६ १७ १८
१९
योगसूत्र की विषय-वस्तु
मोक्ष के विषय मे शंका ओर उसका समाधान प्रथम सूत्र की व्याख्या--अथ' शब्द का अथं क. अथ' शब्द मंग का ग्योतक भी नहीं 'अथ' का अथं आरम्भे या अधिकार
योग के चार् अनुबन्ध
योग ओर शास्र में सम्बन्ध
योग का रक्षण ओर समाधि
क. योग का अथं समाधि--आपत्ति
ख. योग का व्यावहारिक अर्थ-- चित्तवृत्तिनिरोध चित्त ओर विषयों का संबन्ध
क. परिणाम के तीन भेद
योग का अथं वृत्तिनिरोध छने पर आपत्ति
क, समाधान
समाधि का निरूपण- इसके भेद
पांच प्रकार के वटेग--अविद्या पर अपत्ति क. आपत्ति का समाधान
अस्मिता, राग ओर देष
अनुशयी" शब्द की सिद्धि मे व्याकरण का योग अभिनिवेश का निरूपण
कमं, विपाकं ओर आश्य
वृत्तिनि रोध के उपाय--अभ्यास ओर वैराग्य समाधि-प्राप्ति के चयि क्रियायोग
मत्र ओर उनका विवेचन
क. मंत्रोके दश्च संस्कार
ईर्वर प्रणिधान ओर क्रियायोग का उपसंहार क्रिया ही योग है- शुद्धा सारोपा लक्षणा
क. प्रयोजनमूलक लक्षणा
६४० ६४३ ६४४
` ६४१५ ६४७ द५८-७३९ ६४८ ६५४ ६५७ ६६३ ६६७ ९६६९ ६५७२ ६७३ ६७५ ६७७ ६८१ ६८३ ६८५
६८८ ६८८
९९१ ६९५ ६९९ ७०9 ७०२ ७०३ ७०५४ ७०५ ७०७ ७०९ ७१२ ७१३ ७१७
| | । ॥ । | ।
२५
( ५“ )
२१ योग के आठ अंग-यम ओर नियम
क. आसन ओर प्राणायाम
२२ वायुतत्व का निरूपण २३ प्रत्याहार का निरूपण
कृ, धारणा ओर ध्यान
२४ योग से प्राप्त होने वाली सिद्धियां
क. मधुमती-सिद्धि
ख, अन्य सिद्धिरया-- मधुप्रतीका, विशोका, संस्कारशेषा कैवल्य की प्राप्ति--प्रकृति ओर पुरष को
क. योगश्चाख्र के चार पक्ष
( १६ ) शांकर-द्रशान ( अदरेतवेद्(न्त ) १ परिणामवाद-खण्डन- प्रकृति की सिद्धि अनुमान से असंभव ७४०
६4)
क. प्रकृति के लिये श्रुति-प्रमाण भी नहीं दै ख. सांख्य-दर्शंन के दृष्टान्त का खण्डन वेदान्तसूतव्र की विषय-वस्तु
ब्रह्म की जिज्ञासा-प्रथम अधिकरण
# आत्मा की जिज्ञासा-- सन्देह की असंभावना
क. आत्मा की जिज्ञासा असंभव ~ प्रयोजन का अभाव
ब्रह्मजिज्ञासा का आरंभ संभव --उत्तरपक्ष
कृ. उपक्रम आदि लिगों के उदाहरण--आत्मा की सिद्धि
वैशेषिक [8
आत्मा का अध्यास- -मत की परीक्षा
क. आत्मा के अध्यास की पुनः सिद्धि- भेद का खण्डन 3 घ
ख. जेनमत में स्वीकृत जीव पर विचार
७ विज्ञानवादी बौद्धो का खण्डन-- विज्ञान आत्मा ८ आत्मा के विषय में संदेह ९ ह्य की सिद्धि के व्यि आगम प्रमाण
१०
११
क. सिद्ध अथं का बोधक होने से वेद अप्रमाण-पूरवंपक्ष ख. सिद्ध अथं में शब्दों की व्युत्पत्ति--उत्तरपक्ष
अध्यास का निरूपण- प्रपंच का विवतंरूप होना
क. अध्यास के भेद-दो प्रकार से
अध्यास का मीमांसकों के द्वारा खंडन--लम्बा पूर्वपक्ष क. मिथ्याज्ञान के लिये कारण-सामग्री का अभाव
ख. असत् अर्थं का ज्ञान नहीं होता
७१९ ७२० ७२३ ७२९ ७३१ ७३२ ७३३ ७२३४ ७३६ ७३९ ७४०८९९१
७४२ ७४४ ७५२ ७५७ ७१८ ७६२ ७७० ७७१ ७७३ ७७८ ७८१ ७८३ ७८९ ७८८ ७९१ ७९५ ८99 ८०१ ८०३ ८०१
८०७
॥ ( ५६ ) ॥॥ | 1 ग. ग्रहण ओर स्मरण का विद्टेषण ८०९ ॥| घ. ग्रहण ओर स्मरण में अभेद या सारूप्य ८११ ॥ ड. "पीतः शङ्खः" के व्यवहार का समर्थन ८१६ || | १२ नेदं रजतम्" की सिद्धि-- मीमांसक मत ८१८ 1 । १३ मिथ्याज्ञान कौ सत्ता है--शंकर का उत्तरपक्ष ८२४ । ॥ ॥ क्. रजत का सीपी पर आरोप तरद | ॥ । | १४ आरोप के विषय मे शंका-समाधान | ८३२ । | |: क. मीमांसकं के तको का उत्तर ८३३ । ॥ | १५ माध्यमिक बौद्धो का खण्डन--भ्रमविचार ठत (| क. विज्ञानवादिया का खण्डन--भ्रमविचार ८४३ ॥ | ख. नेयायिकों की अन्यथाख्याति का खण्डन ८४४ ॥। १६ इदं रजतम् मे ज्ञान की एकता-शङ्खा-समाधान ८४६ ४ । ॥ १७ त्रिविधसत्ता तथा अनिवंचनीय-ख्याति ८५० | ॥॥ १८ माया ओर अविद्या की समानता ८४५३ || | । | क. अविद्या की सत्ता के किए प्रमाणं ६ ८५६ || त. अहमज्ञः" का प्रत्यक्ष अनुभव ओौर नैयायिक-खण्डन ८५९ ॥ | १९ दूसरी विधि से अहमज्ञः" के दारा अविद्या की सिद्धि ८६४ | | २० अनुमान से अविद्या की सिद्धि ८६६ | ॥ २१ शब्द-प्रमाण से अविद्या की सिद्धि ८७१ | || २२ शाक्त-सम्प्रदाय मे माया--शक्ति ८७२ | ॥| २३ संसार अविद्याकल्पित है--शंका-समाधान ८७४ | | | | ॑ २४ प्रपंच की सत्यता का खण्डन-- सत्य की निवृत्ति नहीं ८८२ | ॥ २५ आत्मज्ञान से अविद्या-नाश--राजपृत्र का हृष्टान्त ८८५ || २६ प्रथम सूत्र का उपसंहार ओर अनुबन्ध मतथ { | | क. चतुस्सूत्री के अन्य सूत्र- स्वरूप ओर तटस्थ लक्षण ८८९, ।॥॥| परि शिषट--र प्रमुख दशंन-ग्रन्थो की सूची ८९३ ॥ | परिशिष्ट--२ प्रमुख दानिक ओर उनकी कृतियाँ ९२८ ॥ | | परिरिष्ट--३ मूलग्रन्थ में निदिष् ्रन्थ ओौर ठेखक ९४८ । | | || परिशिषठ--४ मूलग्रन्थ के उद्धरण ९५२ | ॥ | परिशिष्ट--५ शब्दानुक्रमणी ९७१
| | =
सर्वद्नसंयह;
प्रकाराः व्याख्योपेतः ---- =-= भन
बन्दे वाणीं वराभीष्टां स्वगुरं बनमालिनय्। कुवे व्याख्यां प्रकाशाख्यां सर्वदशनसं ग्रे ॥ १॥ टीकां यद्यपि बेदुषीविसलितामम्यङ्करो निर्ममे नेवं सायणमाधवस्य सरला जातां गभीरा गिरा । सर्वेषामुपकारमेव सुचिरं ध्यात्वा स्वभाषामयीं- व्युत्पत्तिप्रहितामिमां वितनुते व्याख्यां मगोऽयं कविः ॥ २॥ नाधीतं पदशाखमप्यवगतः कोशो न सम्यड्या साहित्येऽपि न साधना किल कृता तकं सदा धर्षितः | वेदान्तादिविचक्षणेगेरुवरैर्बिचोपलव्धि हृदा ध्यायं ध्यायमहं मुदं किल लये ज्ञानं दिशत्वीश्वरः ॥ ३ ॥
र्थ कौ निविघ्न समाततिके लिए भारतीय-परंपरा का पालन करते हृए सायण-माधव इसके आरंभ में मंगलाचरण के शोक लिखते है-- नित्यज्ञानाश्रयं बन्दे निःश्रेयसनिधिं चिवम्। 9 (9 तेनेवेदं ^ ¢ येनेव जातं मद्यादि तेनेवेदं सकलेकम् ॥ १ ॥ जिसमें नित्यज्ञान स्थिर होकर रहता है, निःश्रेयस ( चरम सुख, मुक्ति ) काजो भारडार है रेस शिव कोम नमस्कार करता हु; उसमे ही पृथ्वी आदि [ द्रव्य | उत्पन्न हृए ह ओर उस ( शिव ) के कारण ही यह (सारा संसार) कतंयुक्त [ कहा जाता है ] । [ इस आरमिक श्ोकके द्वारा ही माधवाचायं निर्देश करते हैकि ईश्वरकर्ताहै गौर संसार उसका कार्यं। न्याय-शाखरमें ईश्वर की सत्ता सिद्ध करनेमें यह भीएक तकंहै। पृथ्वी आदि द्रव्य तथा निःश्रेयस ओर नित्यज्ञान का विम भी न्याय -वेशेषिकों के अनुक्रूल है । दद्चन- शाख की मुख्य समस्यायं है--ईश्वर, मोक्ष, मूलतच्व । इनका निदेश आदि
मे हुमा है। ]॥ १॥
र सवेदशंनसंग्रहे- पारं गतं सकलद्ीनसागराणा- मात्मोचितार्थचरिता भितसर्वलोक मात्मोचिताथचरिताथितसवेरोकम् । ्रीशषाङ्गपाणितनयं ५ निखिलागमन्ं श्रीश्षाङ्गपाणितनयं निखिलागमज्ञ सरवज्ञविष्णुगुरुमन्वहमाश्रयेऽहम् ॥ २ ॥ सभी द्न-रूपौ समुद्रो के पार पहुचे हृए्, अपने अनुकूल तस्व के उपदेश सते सभी लोगो को कृतां करने वले, सभी आगमो ( शालो ) को ज[नने वाले, श्री श्ाङ्खपाणि के पुत्र, सवंज्ञ-विष्णु नामक गुर का नै प्रतिदिन आश्रय लेता ( या अनुसरण करता हं ) 1 | आटमोचितार्थ॑० = कोविल के अनुसार इसका अथं है- “जिसने आत्मा शब्द के उचित अर्थं के दवारा समस्त मानव को सन्तुष्ट कियादहै' |।॥ २॥ | ्रीमत्सायणदुग्धान्धिकोस्तुमेन ` मोजसा ।
क्रियते माधवार्येण सवेदशेनसंगरहः ॥ २ ॥ श्री युक्त सायण-वंशरूपी क्षीर-सागर मे कौस्तुभ-मणि के समान तथा महाप्रतापी माधवाचायं के द्वारा | सभी द्नशाल्नो का संक्षेप ] यह 'सरव॑द्न- संग्रह" बनाया जा रहा है ॥ ३॥
पू्वेपामतिदुस्तराणि सुतरामारो्य शाख्ञाण्यसो भ्रीमत्सायणमाधवः प्रथुरुपन्यास्यत्सतां प्रीतये । दूरोत्सारितमत्सरेण मनसा शृण्वन्तु तत्सजना मास्यं कस्य विचिन्रपष्परचितं प्रीत्य न संजायते! ॥ ४ ॥ पहले के आचार्यो के अत्यन्त कठिन शाखो का अच्छी तरह मन्थन करके, सायण के वंश मे उत्पन्न, सामथ्यंवान् माधव ने सजनो की प्रसन्नता के लिए
[उन शाश्नों को] इस जगह जमा किया; उसे सजन लोग मन से मत्सरता ( ईर्ष्या ) दूर हटाकर सुन, क्योकि रंग-विरगे पूलों से बनाई गई माला किसे प्रसन्न नहीं करती ? ॥ ४॥
----अन=--
८ १) चार्वाक-दशनम्
प्रत्यक्षमेव किल यस्य कृते प्रमाणं भूताथवादमथ यो नितरां निविष्टः वेदादिनिन्दनपरः सुखमेव धन्त सोऽयं ब्रहस्पतिमुनिमम रश्चकोऽस्तु ।-ऋषिः ( १. चार्वाक ओर लोकायतिक- नामकरण ) अथ कथं परमेश्वरस्य निःश्रेयसम्रदत्वमभिधीयते ? बृहस्प- तिमतानुसारिणा नास्तिकिरोमणिना चावोकेण तस्य दृरोत्सा- दुरुच्छेदं [च रितत्वात् । दुरुच्छेदं हि चावोकस्य चेष्टितम् । प्रायेण सवप्राणि- नस्तावत्-- १. यावजीवं सुखं जीवेननास्ति मृत्योरगोचरः । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कतः ! मी इति लोकगाथाम् अनुरुन्धाना नीतिकामश्ाखानुसारेण अथंकामो एव पुरुषार्थो मन्यमानाः, पारलोकिकमर्थम् अपहृवानाः, चाव कमतमनुवतंमाना एवानुभूयन्ते । अत एव तस्य चावोकमतस्य (लोकायतम्' इत्यन्वथेम् अपरं नामधेयम् ॥ मंगलाचरण के पहले श्छोक मे परमेश्वर को “निःश्रेयसनिषि' ( मुक्तिका भार्डार ) कहा गया है । आप परमेश्वर को मुक्ति प्रदान करने वाला कैसे कहते है ? ब्रहस्पति के मत को मानने वाले, नास्तिको के शिरोमणि ( प्रधान ) चार्वाकने तो इस तरह की धारणा दही उखाड फकीदहै। चार्वाकके मतक खर्डन करना भी कठिन है । प्रायः संसारमें सभी प्राणी तो इसी लोकोक्ति पर चलते ह--जबतक जीवन रहे सुख से जीना चाहिए, एेसा कोई नहीं जिसके पास मृत्यु न जा सके; जब शरीर एक बार जल जाता है तब इसका पुनः आगमन केसे हो सक्ता है ? सभी लोग नीतिशाख्र ओर कामलाख्र के अनुसार अथं ( घन-संग्रह ) ओर काम ( भोग-विलास ) को ही पुरुषां समन्ते है, परलोक की बात कौ स्वीकार नहीं करते है तथा चार्वाक-मत का अनुसरण करते है इस तरह मालूम होताहै [ बिना उपदेश के ही लोग स्वभावतः
४ सबेदशनसंग्रहे- चार्वाक की ओर चल पडते है | इसलिए चार्वाक-मत का दूसरा नाम अंके अनुकूल ही है-लोकायत ( लोक = संसार मे, आयत = व्याप्त, फेला हुमा ) । विरोष-शङ्कर, भास्कर तथा अन्य टीकाकार लोकायतिक नाम देते है । लोकायतिक-मत चार्वाकों का कोई सम्प्रदाय है। चार्वाक = चार ( सुन्दर ), वाक ( वचन )। मनुष्यों कौ स्वापराविक-परवृत्ति चार्वाक-मत कौ ओर ही दहै। बाद मे उपदेशादि द्वारा वे दूसरे दर्शनों को मान्यता प्रदान करते ह । दुसरे जीव भी ( परपक्षो आदि ) चार्वाक (= स्वाभाविक-घमं एवं देन ) कै पृष्ठपोषक ह । ग्रीक-दर्चन के एरिस्टिपस एवं एपिक्युरस इस सम्प्रदाय के समान अपने दशनं की अभिव्यक्ति करते है । "लोकायत शब्द पाणिनि के उक्थगण ( क्रतुवथादिसूव्ान्ताद्क् ४।२।६० ) मेँ मिलता है जिसमे "लोकायतिक" शब्द बनाने का विधान है । षडदर्शन-समुच्चय के टीकाकार गणरत्न का कर्टना कि जो पुरय-पापादि परोक्षवस्तुओं का चर्व॑श ( नाश ) कर दे वही चार्वाक है । कारिका-वृत्ति मे ( १।३।३६ ) चार्वां नामक लोकायतिक-आचायं का भी उल्लेख है ।
( २. तच्व-मीमांसा ) तत्र पृथिव्यादीनि भूतानि चत्वारि तत्वानि । तेभ्य एव देशकारपरिणतेभ्यः किण्वादिभ्यः मदशक्तिवत् चेतन्युष- ज्ञायते । विनष्टेषु सत्स स्वयं विनश्यति । तदाहुः--विज्ञान- घन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवाुषिनश्यति, स॒ न रत्य संज्ञास्तीति, ८ बृह ० उप० २।४।१२ ) । तच्ेतन्यविशिषट- देह एवात्मा । देदहातिरिक्ते आत्मनि प्रमाणाभावात् । प्रतयकषक- प्रमाणवादितया अनुमानादेः अनङ्गीकारेण प्रामाण्याभावात् ॥ उनके मत से परथिवी आदि चार महाभूत ही तत्वह ( पृथ्वी, जल, अभि, वायु ) [ ब्रत्यक्षको ही प्रमाण मानने के कारण आकाशतत्त्वं कौ °
। जिस है, उसी
प्रकार करव आदि ( मादक-्रव्यों ) से मादक-शक्ति उत्पन्न होती
प्रकार शरीर के खूप मे बदल जाने पर इन्दी ( चार ) तत्वों से वेतन्य उत्पन्न होता है । इनके नष्ट हो जाने पर स्वयं चैतन्य का भी विनाश हो जाता है । हेला कहा भी है ( भरुति-प्रमाण से भी यही बात सिद्ध होती है }--{( आत्मा ) विज्ञान ( = शुद्ध चैतन्य ) के रूप में इन भूतो से निकल कर उन्हीं म विलीन हो जाता है, मृसयु के बाद चैतन्य ( ज्ञान } की सत्ता नहीं रहती" ( ¶ृ० उप
क नि ; # ५, ५ ह. $ नि कः [7 } ॥ र ,
चाबौकदशनम् ५
२।४।१२ ) । अतएव उप्यक्त चैतन्य से युक्त शरीर को ही आत्मा कहते हैँ । देह के अलावे आत्मा नामका कोई दूसरा भी पदाथं है कोई प्रमाण इसके लिये नहीं । ये केवल प्रत्यक्षज्ञान को ही प्रमाण मानते है; अनुमानादिकीो अस्वीकार करने से उनको प्रमाण नहीं माना जाता ॥
विरोष-किरव = एक प्रकार की ओषधि या बीज जिससे शराब बनाई जाती थी । (सुरायाः प्रकृतिभूतो वृक्षविरेषनिर्यासः' ( अभ्य० ) । जैसे प्रकृति अवस्था ( किंणव, मधु, शकरादि ) मे मादक शक्ति नहीं किन्तु उनकी विकृति अवस्था ( शराब ) में मादकता आ जाती है, उसी प्रकार पृथ्वी, वायु आदि पदार्थो मे चैतन्य न होने पर भी इनके विकार-रूप (शरीर) में चैतन्यहो जाता है । तुलना कर-
जडभूतविकारेषु चैतन्यं यत्त॒ टृद्यते । ताम्बूलपूगचर्णानां योगाद्राग इवोत्थितम् ॥ ( स° सि° सं° २।७ )
अर्थात् जड्-पदार्थो के विकार से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न होता है जेस पान, सुपारी ओौर च्ूनेके योगसे पान की लाली निकलती है । अआत्मा= शरीर + चैतन्य । चार्वाक केवल प्रत्यक्ष-प्रमाण मानते है । इनके द्वारा अनुमान के खरडन के लिए आगे देखं । ब्रहदाररयकोपनिषद् के वाक्य का उद्धरण चार्वाक अपने अथं की सिद्धिके लिए देते है, भले ही उसका दूसरा अथं है । शङ्कुराचायं इसमें ब्रह्मज्ञान के अनन्तर की अवस्था का वर्णन मानते है । देखिये, शबर- भाष्य जे० सुऽ १।१।५; कहा भी है-^. 8९0प141€] वृप्०#९ह € 116 णः 118 0 [पाः]2086. अर्थात् स्वार्थ-सिद्धि के लिए दृष्ट भी बाईइबिल से उद्धरण देते है ।
(३. खुख की भरा्ि- दुःख ओर सुख का मिश्रण) अङ्गनाद्यालिङ्गनादिजन्यं सुखमेव पुरूषाथः । न च “अस्य ;खसंभिन्नतया पुरुषाथेत्वमेव नास्ति" इति मन्तव्यम् । अवज नीयतया प्राप्तस्य दुःखस्य परिहारेण सुखमात्रस्यैव भोक्तव्य स्वात् । तद्यथा- मत्स्याथीं सश्चस्कान् सकण्टकान् मत्स्या- नुपादतते। स यावदादेयं तावदादाय निवतेते । यथा वा धान्याथीं सपरारानि धान्यानि आहरति, स॒ यावदादेयं तावदादाय
निवतंते । तस्माद् दुःखभयात् नालुकूलवेदनीयं सुखं त्यक्त्- मुचितम् ॥ ल्ी-आदि के आलिङ्गनादि से उत्पन्न सुख ही पुरुषार्थं है ( दूसरा कुछ
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पुरुषार्थं नहीं ) । ठेसा नहीं समज्ञना चाहिए कि दुःख से मिला-जुला होने ( संभिन्न ) के कारण [ सुख ] पुरुषाथं नहीं है, क्योकि हमलोग [ सुख के साथ | अनिवा्य॑-रूप से मिले-जुले दुःख को हटाकर केवल सुख का ही उपभोग कर सकते है 1 [ एेसा कोई सुख संसार में नहीं जो केवल सुख ही हो, दुःख नहीं । वस्तुतः संसार के सभी सुख दुःखों से युक्त होते ह । एेसा देखकर भी सुल को पुरुषां समक्लना चाहिए क्योकि सुख-दुःख से भरो वस्तु से दुःख को हटाकर केवल सुख का ही आनन्द लिया जा सकता है । इसके लिए दृष्टान्त भी लं-- | लैते- मछली चाहनेवाला व्यक्ति छिलके ( 3५९1९ ) भौर काटो के साथही मरुलियो को पकडता है, उसे जितने की आवश्यकता है उतना ( अंश ) लेकर हट जाता है; गौर जिस प्रकार धान को चाहनेवाला व्यक्ति पुल के साथ ही धान नले आता है, जितना उसे लेना चाहिए उतना लेकर हट जाता है । इसलिए दुःख के भय से [ मन के ] अनुकूल लगनेवाले सुख को छोडना ठीक नहीं है ॥
: न दहि श्रृगाः सन्ति इति शालयो नोप्यन्ते । न हि (भिक्ुकाः सन्ति इति स्थाल्यो नाधिश्रीयन्ते । यदि कश्चिद् भीरुः चट सुखं त्यजेत्; तिं स॒ पञ्चवत् मूर्खो भवेत् । तदुक्तम्--
२, त्याज्यं सुखं विषयसङ्गमजन्म पुंसां दुःखोपसुषटमिति मृखेविचारणेषा ।
ब्रीहीञ्जिहासति सितोत्तमतण्डकाद्यान् | को नाम मोस्तुषकणोपहितान्दिताथीं ॥ इति । 9 रेखा नहीं देला जाता कि हरिण ह(वे खा जारयेगे ) इसलिए धान ही न रोपे, था भिखमंगे है (मांगने के लिए आवेगे ) इसलिए ॒हांडियों को [ शरू्दे पर ] ही न चाये । ( लोग यही समक्षते दै किं विघ्न अपने स्थान पर ह, हमारा कामक्योंरुका रहै?) यदि कोई उरपोक [ उपयुक्त प्रकार के विघ्नो के भयसे] ष्ट ( साक्षात्, वतमान, दिखलाई पड़नेवाले ) सुख को चोड देता है तो वह पयु के समान मूख ही है । कहा भी है यह मूर्खो का विचार है कि मनुष्यों को सुख का त्याग कर देना चाहिए क्योकि उनकी उत्पत्ति [ सांसारिक | विषयों के साथहोतीहैतथावे दुःख से भरेहै। मला क्ेहिये तो, [ अपनी ] भलाई चाहनेवाला कौन एेसा आदमी होगा जो उजले ओर
१ व # +# 0 ग 4
चावौकदशंनम् ७
` सबसे अच्छे दानैवाली धान की बालियों को केवल इसीलिए छोडना चाहता दहै करि इनमे भरंसा ओर कुरडा भी है ?' [ कण = कुण्डा, कोडा, कुंड; चावल के छिलके की धूल, जो पशुओं के खाने के काम में आत्तीहै।]
(४. यज्ञो ओर बेदौ की निस्सारता ) नयु पारलोकिकसुखाभावे बहुवित्तव्ययश्षरीरायाससाध्ये- ऽशरिहोत्रादौ विचाब्रद्धाः कथं प्रवरतिष्यन्ते ! इति चेत् , तदपि न प्रमाणकोरि प्रवेष्टमीष्टे । अनृत-व्याघात-पुनरुक्तदोषैः दूषित तया वेदिकम्मन्येरेव धृतेवकेः परस्परं--कमकाण्डभ्रामाण्य- वादिभिः ज्ञानकाण्डस्य, ज्ञनकाण्डव्रामणण्यवादिभिः कमेकाण्डस्य च~ प्रतिधिप्तत्वेन, त्रय्या धृतप्रलापमात्रत्वेन, अग्निहोत्रादे
जीविकामात्रग्रयोजनत्वात् । तथा च आभाणकः--
३. अभ्रिहोत्रं त्रयो बेदाखिदण्डं भस्मगुण्ठनम् । बुद्धिपौरूषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ॥ इति ।
यदि [ कोई पूछे कि ]--पारलौकिक-सुख [ का अस्तित्व ] न हो तो विद्वान् लोग असनिहोत्रादि ( यज्ञो ) में व्यो प्रवृत्त होते है जब कि उन यज्ञोमे अपार धन का व्यय तथा शारीरिक श्रम भी लगता है?-तो, यह ( तकं) भी प्रामाणिक नहीं माना जा सकता क्योकि असिहोत्रादि कर्मो का प्रयोजन केवल जीविका-प्रात्तिही हैः तीनों (वेद) केवल धूर्तो ( ठगनेवालों ) के प्रलाप रहै, क्योकि अपने को वेदज्ञ सम्चनेवाले धृतं “बगुला-भगतों ने' आपसमेंही [ वेदको ] अनृत ( श्लूढा), व्याघात (आपस मे विरोध) ओौर पुनरुक्त ( दुहराना ) दोषों से दूषित किया है, [ उदाहरण के लिए ]--कमैकार्ड को प्रमाण माननेवालों ( पुवं मीमांसकों ) ने ज्ञानकारड को, ओर ज्ञानकारड को प्रमाण माननेवालों ( उत्तरमीमांसकों, वेदान्तियों ) ने कर्म॑कारड को आपस में दोषयुक्त बतलाया है) एेसी लोकोक्ति भी है-- वृहस्पति का कहना है कि अध्धिहोत्र, तीनों वेद, तीन दर्ड धारणा करना ( संन्यास लेना }) ओर भस्म लगाना उन लोगों की जीविका [ के साधन ] है जिनमें न बुद्धिहै, न पुरुषार्थं ( शारीरिक-शक्ति ) ।'
विरोष--चार्वाक के विरोधी लोग शङ्का करते है कि विद्वान् लोग कितना अधिक व्यय ओौर श्वम से अग्निहोत्रादि का सम्पादन करते है । पर यह सब किसलिए ? लौकिक-सुख तो इनसे है नहीं । तब तो केवल पारलौक्रिक-सुख ही
त सवेदशनसंग्रहे-
इनसे भिलता है अर्थात् परलोक है । अनरत-दोष-पुतरेषटि-यज्ञ करने पर भी पत्र न होना वेद-वाक्यों को श्चृठा सिद्ध करता है । कर्मकाण्ड में, जसे “भोषधे त्रायस्वैनम्" ( त° सं° १।२।१ ) हे ओषधि ! रक्षा करो, (स्वधिते मेनं हिसीः" ( त° सं° १।२।१ ) णे दुरे इसे मत काटो-इन अचेतन वस्तुओं को चेतन के समान सम्बोधित करना असम्भव है। इसी प्रकार ब्रह्मकारड मे, "अन्नं ब्रहोति व्यजानात्" ( तै० उ० ३।२ ), श्राणो ब्रह्मेति व्यजानात्" ( ते० ३।३ ) इनमें अन्न ओर प्राण को ब्रह्म माना गया है वह क्षा है। व्याघात-दोष- कभी कहते है उदिते जुहोति" ओर कभी अनुदिते जुहोतिः ( तुल० एे° ब्रा ५।५।५ श्रौर ते ब्रा० २।१।२।३-१२ ) । कभी "एक एव रुद्रो न द्वितीथोऽवतस्थे' ( तै० सं० १।८।६ ) कहते तो कभी हजारों श्रो को मानते हृए भी नहीं हिचकते- "सहस्राणि सहस्रशो ये रुद्रा अधि भूभ्याम्" ( ते° सं° ४।५।११ ) । कमी तो "एकमेवाद्वितीयम्" ( छा० ६।२।१ ) कहते हैँ कभी द्रा सुपर्णा सयुजा" ( मु०° ३।१।१ ) गौर “ऋतं पिबन्तौ" ( का० ३।१ ) कहते ह इस प्रकार परस्पर विरोधी वाक्यों की सत्ता वेदों मेही है। पुनरूक्त-द्ोष--उसी बात को कहना जिसे लोग पहले से ही जानते है जंसे (आपः उन्दन्तु" ( ते° सं ° १।२।१ ) क्षौरकाल में सिर को जल सेभिगादे। थिवी से पौषे होतेह पौधों से अन्न" ( तै° २।१।१ )--इन सोमे उसी का वर्णन है निसे हम जानते है । इन दोषों के लिए देविए-सायण कौ ऋग्वेद भाष्य भूमिकामें मन्त्रो ओर ब्राह्मणों का प्रामारय-विचार ओर व्यायन्घुत्र २।१।५७- (तद्रा
मीमांसक लोग ज्ञानकाण्ड को अप्रामाणिक मानते है तथा वेदान्ती लोग कमकारड को । दो कै लड़ने पर तीसरे का लाभ होता ही है-इस तरह चार्वाक पूरेवेदकोही अप्रामाणिक मान लेते ह। उनके अनुसार धूर्तोने यज्ञादि का विधान करनेवाले वेदों का निर्माण करके, श्रद्धा से अन्धी जनता मे विश्वास दिलाकर, लोगों से यज्ञ कराकर धन चूसने का एक साधन बना लिया है, उनकी यह जीविका ही हो गई है । अधिहोत्र=अभि मे होनेवाले सभी श्रौत, स्मातं कमं । तीन वेदऋग् , यजुः, साम। ये पूर्त के बनाये है किन्तु अपौरूषेय कहकर इनका प्रचार किया गया ह । त्रिदर्ड--तीनों प्रकार के कर्मोका त्याग करके संन्यास लेना ओर उन कर्माको दर्ड देने के लिए दरड धारण करना । भस्म लगाकर सन्ध्यावन्दन, देवपूजा, जपादि करना । जिनके पास बुद्धि है वे तरह-तरह के उपाय करके ( साम, दानादि उपायों से देश, काल के अनुसार परामश देकर } जीविका पाते है । पुरुषार्थं वाले पराक्रम दिखाकर वृत्ति पाते ह । किन्तु जिनके पास ये दोनों चीजं नहीं हवे जीविका
चावौकदशनम ६
का कोई दसरा साधन न देखकर सभी जीवों को कमं के बन्धन में पड़ा हुजा बताकर उनसे मनमाना धन एठते रहते ह ।
( ५. ईश्वर-मोक्ष-आत्मा ) अत एव कण्टकादिजन्यं दुःखमेव नरकः । लोकसिद्ध राजा परमेश्वरः । देदच्छेदो मोक्षः । देहात्मवादे च ्थुलोऽह, कृशोऽहं, कृष्णोऽहम्' इत्यादि सामानाधिकरण्योपपत्तिः । मम शरीरम्! इति व्यवहारो राहोः शिरः” इत्यादिवदोपचारिकः ॥
इसलिए करटकादि [ भौतिक कारणों से ] उत्पन्न [ भौतिक | दुःख ही नरक है ( पुराणों में वशित कुम्भीपाकादि नरक नाम की कोई वस्तु नहीं ) । संसार मं स्वीकृत राजा ही परमेश्वर है ( संसार का नियन्ता, उत्पत्ति, पालन ओर संहारकर्ता, पुनजन्म का प्रदाता ईश्वर नहीं क्योकि उत्पत्ति भादि तो स्वाभाविक है, पुनजन्म ह ही नहीं)। [ देह ही आत्मा है अतः | देहया आत्मा का विनाश ही मोक्षद) देह को आत्मा मानने परही भें मोटाहै, मै बला है, मै काला ह" इत्यादि वाक्यों को सिद्ध करना सरलदहो सकता है क्योकि [ उदेदय ओर विधेय दोनों का | आधार एक ही हो जाता है। [म आत्मा, मोटा = देह का गुण । अहं स्थूलः' कहने पर दोनों शब्दों का आधार समान हो जाता है, आत्मा पर शरीर के गणो का आरोपण हभा है इसलिए ठेसे वाक्यों की सिद्धि के लिए हमें अत्मा ( अहं ) ओर देह (स्थूलः ) को समान समन्षना होगा । यदि आत्मा-देह एक नहीं ह तो अहं स्थूलः" वाक्य केसे बन सकता है ? उपर्युक्तं देहात्मवाद को स्वीकार कर लेने पर समस्या सुलक्ञ जाती है । अस्तु, यदि शरीर आत्मा दै तो हमे "अहं शरीरम्" कहना चाहिए, “ममं शरीरभू' कैसे करगे ? | भेरा शरीर" यह प्रयोग "राह का सिरः के समान आलंकारिकं या गौण-प्रयोग है । [ भम शरीरम्" तभी कह सकते त जब आत्मा ( अहं ) ओर शरीरमें भेद हो किन्तु यह मृख्याथं नहीं है, आलंकारिक-दषटि से प्रणुक्त है । राहु ओर उसका सिर दो पृथक् चीजं नहीं एक ही चीज है । “राम का सिर' कहने पर तो पाथक्य स्पष्ट मादरम पड़ता है क्योकि एक ओर राम तो समस्त अ ङ्ग-संस्थान को कहते है ओर दूसरी ओर सिर एक अंग विशेष है । इसी के साह्य से 'राहु का सिर" भी कहते है किन्तु वस्तुतः सिर काही नाम राहु है फिर भी ^राहोः शिरः" कहते है । उसी प्रकार जामा ओर शरीर के एक रहने पर भी "मम शरीरम्! कहते है। |]
१० सवेदशेनसंग्रहे- ( ६. मत-संग्रह ) तदेतत्सवं समग्राहि- ४. अङ्गनालिङ्गनाजन्यसुखमेष पुमथता । कण्टकादिग्यथाजन्यं दुःखं निरय उच्यते ॥ ५, लोकसिद्धो भवेद्राजा परेशो नापरः स्प्रतः ¦ देहस्य नाशो य॒क्तिस्त॒ न ज्ञानान्मुक्तिरिष्यते ॥ ६, अत्र॒ चत्वारि भूतानि भूमिवायनलानिलाः चतुभ्यः खलु भूतेभ्यश्चेतन्युपजायते ॥ किण्वादिभ्यः समेतेभ्यो द्रव्येभ्यो मदशक्तिवत् । अहं स्थूलः कृशोऽस्मीति सामानाधिकरण्यतः ॥ ८, देहः स्थौल्यादियोगाच स॒ एवात्मा न चापरः । ` मम देहोऽयमित्युक्तिः संभवेदोपचारिकी ॥ इति ।
` इन सों का संग्रह कर दिया गया है खरी के आलिगन से उत्पन्न सुख ही पुरुषाथं का लक्षण है । कटि इत्यादि [ गढ़ने कौ | पीड़ा से उत्पन्न दुःखं ही नरक कहलाता है ॥ ४॥ संसारके द्वारा माना गया रजाही परमेश्वर है, कोई दसरा नहीं, देह का नाश ही मुक्ति है, ज्ञान से मक्ति नहीं होती ॥ ५ ॥ इस मत मे चार तस्व है- भूमि, जल, अमि ओर वायु इन्हीं चारो भूतोंसे चैतन्य ( ज्ञान ) उत्पन्न होता है, जिस प्रकार किंरवादि द्रव्यो के भिलनेसे मदाक्ति ( निकलती है ) । ¡भै मोदा ह, “मे पतला ह! -इस प्रकार [ दोनों के | एक आधार होने के.कारण तथा मोटाई आदि से संयोग होने के कारण देह ही आतमा है, कोई दूसरा नहीं । भेरा शरीर' यह उक्ति आलंकारिक है ॥ ६-= ॥ ( ७. अनुमान-परमाण का खण्डन )
स्यादेतत् । स्यादेष मनोरथो यद्यनुमानादेः प्रामाण्यं न स्यात् । अस्ति च प्रामाण्यम् । कथमन्यथा धूमोपलम्भानन्तरं धृमध्वजे प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरुपपेत ! "नचयास्तीरे एलानि सन्ति" इति वचनश्रवणसमनन्तरं फलाथिनां नदीतीरे प्रवृत्तिरिति १.
` तदेन्मनोराज्यविजुम्भणम् । व्याप्िपक्षमेताश्चालि हि लिङ्ग गमकम् अभ्युपगतमनुमानप्रामाण्यवादिभिः । व्यात्िश्च
~ "न+
न "णण
चावोकदशेनम् ११
उभयव्रिधोपाधितिधुरः सम्बन्धः । स च सत्तया चक्चुरादिवननाङ्ग-
भावं भजते, फ तु ज्ञाततया । कः खट् ज्ञानोपायो भवेत् ?
खेर यही सही, किन्तु आपकी यह इच्छा तो तब पूरी होती जब अनुमानादि
को प्रामाणिक नहीं मानते ( यह चार्वाक के विरोधियों की शंका है) । लेकिन
अनुमानादि तो प्रमाण हही, नहीं तो धुआं देवकर अम्मि ( धूमघ्वज } के प्रतिं
बुद्धिमान् लोगों की प्रवृत्ति कैसे सिद्ध होती ( = अनुमान-प्रमाण से ही यहं सम्भवं
है) ? अथवा, नदी के किनारे फल है" इस बात को सुनकर फल चाहनेवाले
नेदी के किनारे क्यों चल पड़ते है ? ( = शब्द या आगम-प्रमाण से यह सम्भव
हैजवब किं आप्तया यथार्थवक्ता की बात सुनकर उस पर विश्वास करं )। [ इस
प्रकार इन उदाहरणं से सिद्ध होता है कि अनुमान ओौर शब्द प्रमाण दहै
यह पूवंपक्षी अर्थात् चार्वाक के विरोधियों का वचन है | यह सब केवल मन के राज्य की कल्पना है। अनुमान को प्रमाण
माननेवाले लोग, सम्बन्ध बतलानेवाला लिङ्गं ( हेतु 2110016 (€) ) `
मानते है जो व्याप्ति ( 1901 [ष्शा86 ) गौर पक्षधम॑ता ( प्राणः
0160136 ) से युक्त रहता है । ध्याति का अथं है दोनों प्रकार की ( शकितं
ओौर निधित ) उपाधियों से रहित [ पक्ष ओौरलिङ्ख का | सम्बन्ध । आंख की
तरह यह सम्बन्ध केवल अपनी सत्तासे ही [ अनुमनका | अङ्क नहीं बन
सकता, प्रत्युत इसके ज्ञान से [ अनुमान संभव है] ( कहने का अभिप्राय
यह है करि जिस प्रकार आंख दशेन-क्रिया का एक सहायक अङ्ख है उसी प्रकार
व्याति भी अनुमान काअङ्खटहै। किन्तु इन दोनों की सहायताकी विधियोंमें ।
बड़ा अन्तर है । देखने मे, स्वयं आंखों के ज्ञान की आवद्यकता नहीं, केवल
सत्ता की आवश्यकता है किन्तु अनुमान मे. सहायता देनेवाली व्याति की सत्ता
की आवश्यकता नही, उसका ज्ञान होना चहिए )। अब व्यातनिके ज्ञान का |
कौन-सा उपाय है ? [ इसके बाद प्रत्यक्षादि साधनोंके दारा ग्यात्तिका ज्ञान
असम्भव है--यह दिखलाया जायगा ! ] । | विरोष-किसी अनुमान (यदि परार्थानुमानन हो) में तीन वाक्य
होते ह-- व्याति ( 18}0" [शा))86 ), पक्षघम॑ता ( 2417001 [पशा186. )
तथा निगमन ( (गभृप्रञ०ा) ) । | ( व्याप्ति ) यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र वद्धिः, रु ( पक्षधमंता ) पवते धूमः, र ( निगमन ) .“. पर्वते बह्लिः । या, ‰11 81001 ए ०४९०8 816 9 ( 118०7 ),
न क र् कु दयार ~ नः
१२ सबद शनसंम्रहे-
(€ 1111 18 शाणृ्ङ़ ( 21101 ), ,*, ¶76€ [आ] 18 लङ ( (00५, ). इनमे "पव॑त' पश्च ( 2111101 ५७) जिसमे साध्य की सत्ता सन्दिग्ध हो ) है, "वह्नि" साध्य ( 11907 ५९ सिद्ध करने योग्य ) ओौर धूम" हेतु या लिङ्ग ( 11104416 धश" ) । हेतु वह॒ पद है जो 109०7 ओर 1111101: 0७018९6 मे विद्यमान हो किन्तु निगमन ( (गानप्ञणा ) मेन रहे। व्यात्निवाक्य ( 1190 608९ ) में हेतु ओर साध्य का सम्बन्ध होता है, पक्षधरम॑ता-वाक्य ( 11110 ]"€0)86 ) में हेतु ओौर पक्ष का सम्बन्ध होता है तथा निगमन ( (0701८50 ) में पक्ष ओर साध्य का। मूल-ग्रन्थ की पक्तिमे कहा है कि अनुमानमें लिङ्खया हेतुको व्याप्ति गौर पक्षधर्म॑ताके वाक्यो में स्थित रहना चाहिए । प्रत्येक अवस्था मे अनुमान को सफलता व्याति पर ही अवलम्बित है अतः व्याप्ति ज्ञान के लिए न्यायेन मे अनेक उपाय बतलाये गये है । पाश्वात्य तकंशाल्र में तो इसके लिए पूरा आगमन तकशा ही पड़ा हुमा है ( 10१५४९७ 1.08)6 ) । चार्वाक सिद्ध करते है कि व्याति कोन तो प्रत्यक्ष से जान सकते, न अनुमान से; उपमान ओर शब्द भौ इसमें असफल हैँ । व्यातिके ज्ञान में दो उपाधियाँं ( 011त;1008 ) होती है निश्चित ओौर शंकित । यह तो स्पष्ट किव्याप्ति मे उपाधि रहने पर निगमन भी सोपाधिकं होगा अर्थात् अशुद्ध होगा । निन्नलिखित अनुमान सोपाधिक है-- सभी हिसायं अधमं का साधन है, यह हिसा भी हिसा ही है, .*. यह् हिसा अधमं का साधन है । यहाँ पर व्याप्निवाक्य में निषिद्ध" उपाधि है अर्थात् व्याप्ति को इक प्रकार होना चाहिए-सभी निषिद्ध हिसायं अधमं का साधन है! । यदि एेसा नहीं किया जाय तो वेदविहित-हिसा भी अधमंका साधनदहो जाय! इसी उपाधि के चलते निगमन भी सोपाधिक ( (014४0181 ) हो गया किं यदि यह निषिद्ध हिसा है तो अधमं का साधन है" । अस्तु, ऊपर कहा जा चुकाटैकि व्यापि की सत्तासे ही अनुमान लाभान्वित नहीं होता, जब तक किं उसका निशित ज्ञान न हो । इसी प्रकार व्याप्तिमे यदि उपाधि निश्चितदहो तब तो अनमान हो नहीं सकता । उपाधि के दांक्रित होने पर भी कहीं व्याप्ति होगी, कहीं नहीं । एसी अवस्था में व्याति होने पर भी उसके निश्चित ज्ञान के अभाव म अनुमान नहीं हो सकता, व्याप्ति न रहने पर तो अनुमान का प्रश्नही नहीं
चावोकदशनम १३
उठतः ¦ इसीलिए व्याप्ति को उभयविधर-उपाधि से विधुर ( रहित) होनः कहु" गया है ।
( <. प्रत्यक्ष द्वार! व्यासिज्ञान नदीं हो सकता )
न तावस्त्यक्षम् । तच्च बाद्यमान्तरं बाऽभिमतम् । न प्रथमः। तस्य संप्रयुक्तज्ञानजनकत्वेन भवति प्रसरसंभवेऽपि भूतभविष्यतोस्तदसंभवेन सर्वोपसंहारवत्याः व्याप्ते दुज्ञानतवात् । न च व्यािज्ञानं सामान्यगोचरमिति मन्तव्यम् । व्यक्त्योर- विनाभावाभावप्रसङ्गात् । नाऽपि चरमः । अन्तःकरणस्य बहि रिन्द्रियतन्त्रत्वेन बाद्येऽ्थं स्वातन्त्येण प्रबृ्यनुपपत्तेः। तदुक्तम्- चक्षुराद्यक्तविषयं परतन्त्रं बहिमेनः ( त० बि० २० )\ इति ॥
परत्यक्ष-प्रमाणसे तो [ व्याति का ज्ञान |] नहींहो सकता । प्रत्यक्षयातो बाह्य ( 61718] ) होता है या आन्तर ( 1०{ल78] ) । इनमें पहले ( बाह्य ) प्रत्यक्ष से [ व्यािज्ञान होना असम्भव है; बाह्य-पत्यक्ष केवल बाहरी इन्द्रियों से उत्पन्न होता है ] । बाह्य्रत्यक्ष [ बाह्यन्द्ियों से | सम्बद्ध ( बाहरी ) विषयों का ही ज्ञान उत्पन्न कर सक्ता है । [ बाह्येन्दरियों का सम्बन्ध तो केवल वतंमानकाल की वस्तुओं के साथही हो सकता है, अतएव | इष तरह का ज्ञान भले ही वतंमानकाल ( भवतु ) कौ वस्तुओं के विषय मे सफल हो, परन्तु भूतकाल ओर भविष्यत्काले की वस्तुओं का ज्ञान देनेमे तो असफलहो जायगा । ग्यात्नि तो सभी अवस्थाओं ( कालों) का संग्रह करनेवाली है अतः [ बाह्य-प्रत्यक्ष से ] इसका ज्ञान होना दुष्कर है । एेसा मीन समभ कि व्यापत्ति का ज्ञान सामान्य ( जाति 0611९181 01888 ) के विषय मे होता है ( अर्थातु यद्यपि तीनों काल में धूम, अभि आदिक वेयक्तिक उदाहरण हम नहींषा तकते किन्तु इनकी जाति - धूमत्व, अम्नित्व आदि-का तो त्रैकालिक-जञान एक बार ही हो सकता है । तीनों कालों के धूमो मे धमत्व तो वही है इसलिए सामान्य द्वारा व्यापिज्ञान हो सकता है । एेसा नहीं समश्चना चाहिए ) क्योकि तब दो व्यक्तिगत उदाहरणों मे अविनाभाव ( व्याति) का सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता [ वयोकिं यहं निश्चित नहीं कि जाति में प्राप्त सभी गुण उसके प्रत्येक व्यक्तिमे होगे ही । धरूमत्व (जाति) कीन व्याप्ति हमने जान ली, किसी विशेष धूम की तो नहीं न ? वेयक्तिक-धूम की व्याप्निन जाननेसे ` व्यक्ति के विषय में अनुमान भी नहीं हो सकता | ।
~ ` सवेदशेनसंम्रहे-
„प्रत्यक्ष का दूसरा भेद ( आन्तर प्रत्यक्ष ) भी [ व्यातिज्ञान | नहीं करा सकता, [ आन्तर प्रत्यक्ष मन-रूपौ अन्तरिन्दरिय द्वारा ज्ञान देता है किन्तु] अन्तःकरण बाह्येन्दरियों के अधीन टै (जो ज्ञान बाहरी इन्द्रियां पाती स मन उसी की छाप ग्रहण कर लेता है ) इसलिए बाह्य-वस्तुओं ( धूम-अनि आदि ) मेँ स्वतंत्रतापूवंक उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सक्रती ( = बाह्यवस्तुओं के ज्ञान के लिए निश्चय ही अन्तःकरण बाह्येन्द्ियों की सहायता लेगा ) 1 कहा भी गया है- (आंख आदि बाहरी इन्द्रियो के द्वारा प्रदशित ( उक्तं ) विष्यो को ग्रहण करने वाला मन बाद्येन्द्रिों ( बहिः ) के अधीन है" ( तच्व-विवेक, २० ) ॥
( ९. अनुमान ओर शाब्द से व्या्िज्ञान नहीं हो सकता )
ध ध नाप्यनुमानं व्याशषिज्ञानोपायः तत्रतत्रापि एवमित्यनवस्था- दौःस्थ्यम्रसङ्कात् । नापि श्ब्दस्तदुपायः काणादमतानुसारेण अनुमाने एवान्तमावात् । अनन्तभोवे वा ब्रद्व्यवहाररूपलिङ्गा- वेगतिसोपेक्षतया प्रागुक्तदृषणलङद्खनाजङ्गाटतवात् । पूमधूमध्व- जयोरबिनाभावबोऽस्तीति वचनमात्रे मन्वादिवद्िधासाभावाच् । अलुपदिष्टाविनामावस्य पूुरुपस्यान्तरदश्नेन अथोन्तरादुमित्य- भवि स्वाथौलुमानकथायाः कथाशेषतवग्रसङ्गाचच केव कथा परानु- मानस्य ए
अनुमान भी व्याप्षज्ञान नहीं दे सकता; यदि अनुमान से व्यात्निबनेतो व्याति को सिद्ध करने वाले अनुमान की सिद्धिके लिए एक दूसरा अनुमान चाहिए, पुनः उस अनुमान के लिए तीसरा अनुमान चाहिए । इस प्रकार अनवस्था-दोष ( जिसकी समाति कमी न हो ) उत्पन्न होगा । [ अभ्य०-- अनि की धरममें सिद्ध करनेवाली व्यापि जिस दूसरे अनुमानसे ज्ञात होती है उस अनुमान को सिद्ध करने वाली व्यापि किसी तीसरे अनुमान से ज्ञात होगी--इस प्रकार अनवस्था-दोष हुंआा । ]
शब्द-प्रमाण भी व्याप्ति ज्ञान नरींदे सकता वयोकिं कणाद ( वंशेषिक- दश्ैनकार } के मत के अनुसार शब्द अनुमान के ही अन्तरगत है", [ इसलिए
अनुमान के खण्डन के साथ शब्द का भौ खण्डन हो गया ]। यदि शब्द को
क देखिये--भाषा-परिच्छेद, १४०- । ` शब्दोपमानयोनं व पृथक््रा मार्यमिष्यते । अनुमानगताथंत्वादिति वैशेषिकं मतमु ॥
। ॐ ॥ 1 ।
कक +. वैत. कि
स~ ॥
५ ५
चावोकदशनम् १५
अनुमान के अन्तगंतन भी मानेतोभी वृद्धपुरूष के व्यवहार-रूपी लिङ्ख ( चिह्न 11010016 ४९100 ) की तो आवदयकता पड़ेगी ही, इसलिए फिर ऊपर कहा हुआ दोष ( अनवस्था ) आ जायगा जिसे लांघना टेढ़ी खीर है ( = शब्द प्रमाणा मे शक्तिग्रह द्वारा वस्तुओं का बोध होता है। शक्तिग्रह के भिन्न-भिन्न उपाय है जैसे- व्याकरण, उपमान, कोश, आप्त-वाक्य, वृद्धव्यवहार इत्यादि \ शक्तिग्रह का अभिप्राय है किसी शब्द के हारा निधित अथं के साथ उसका सम्बन्ध स्थापित करना जेसे गौ कहने से एक चतुष्पद, सींगवाले, घुरसहित प्राणी को सम्च लेना । यही वैयाकरणो का शक्तिवाद या अर्थविज्ञान है जिसका वर्णन भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में विस्तृत-ल्पसे कियादहै। हा, तो शक्तिग्रह के साधनों मे वृद्ध पुरुष का व्यवहार भी एक है। किन्तु यह ( वृदधपुरूष वाला ) शक्तिग्रह या शक्तिज्ञान अनुमान-प्रमाण से होता है। जेसे-कोई बालक उत्तम वृद्ध के भामानय' कहने पर मध्यम वृद्ध को गौ लाते हए--इस लिङ्ग को- देवकर गामानय शब्दों का अथं "गौ लाओ समक्षलेता दै, वेसे ही धरूभ-अ्नि म व्याति हि" इस प्रकार किसी के कटे हुए वाक्य से शब्दप्रमाण द्वारा उत्पन्न व्यातनिज्ञान--जो अनुमान का साधन है, "धूम, अभि" ओौर व्याति" शदो के शक्तिग्रह ( अर्थज्ञान ) होने के बाद हौ, हो सकता है, उसके पहले नहीं । फिर, शक्तिग्रह के लिए दूसरे व्यवहार'रूपी लिङ्ग कौ आवश्यकता होगी अर्थात् ` दसरा अनुमान चाहिए ओर उस अनुमान मे भी शक्तिग्रह चाहिए-इस प्रकार पुनः अनवस्था आ जाती है )।
यदि यह करे कि धूम ओौर अधि ( धूमध्वज) मे अविनाभाव-सम्बन्ध पटले से हीदटैतो इस बातपर वेसेही विश्वास नहीं होगा जसे मनु-आदि क्षियो की बातों पर । इस तरह अविनाभाव-सम्बन्ध को न जाननेवाला व्यक्ति दूसरी चीज ( धूमादि ) देखकर, दूसरी चीज ( अञ्नि-आदि } का अनुमान नहीं कर सकता इसलिए स्वार्थानुमान की वात केवल नाममात्र को रह जाती दहै, परार्थानुमान की तो बात ही क्या? (= यदि व्यापिज्ञान का साधन केवल शब्द को मानते है तब तो जिस व्यक्ति को धूम-अभ्चि के अविनाभाव-सम्बन्ध का ज्ञान नहीं दिया गया वह तो धूमसे अध्निका अनुमान करेगा ही कैसे? इस तरह आपके अपने तकं से ही स्वार्थानुमान- जिसमे प्रमाणान्तर से व्याति जानकर अनुमान होता है--का दुगं ध्वस्त हो जाता है। पञ्चावयव-वाक्यो का प्रयोग सम्भव न होने से परार्थानुमान का प्रयोक्ता भी नहीं मिल सकता । दोनों अनुमानों के लिये तकंसंग्रह देखं ।
विरोष--अनवस्था दोष- नैयायिकं के यहां कई दोष है जिनमे ये साधारण है। जब किसी वस्तुको उसीके आधार पर सिद्ध करते है तब
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१६ सवेदशनसंग्रहे- आत्माश्चय-दोष होता है। दो वस्तुओं मे एक को दूसरे के आधार पर सिद्ध किया जाय तो अन्योन्याश्रय-दोष होता है । तीन या उससे अधिक वस्तुओं
के बीच वृत्तके रूपमे धरमन वाले तकं को चक्रक-दोष कहते है । यदि तकं को अनन्त काल तक चलने दिया जाय तो अनवस्था-दोष होता है।
( इरिडियन रिसचं इस्टिच्यूट की सायण-ऋम्वेद-भाष्य-मूमिका, ° सातकडि
मुखोपाध्याय अनूदित, प° ७, पाद-टिप्पणी } । शक्तिग्रह के ये साधन है- शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानात्कोशाप्रवाक्याद् व्यवहारतश्व । वावयस्य शेषाद्िवृतेर्वदन्ति सांन्निष्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ॥ ( वा० प९ )
( १०. उपमानादि से भी व्यासिज्ञान संभव नहीं ) उपमानादिकं तु दूरापास्तम् । तेषां संज्ञासंज्ञेसंबन्धादिबो-
धकत्वेन अनोपाधिकसंबन्धवोधक्रत्वासंभवात् ॥ [ व्यात्ति-ज्ञान कराने में ] उपमानादि तो दर से ही खिसक गये ( = उपमान
से व्यापनिज्ञान नहीं होता ) । इसका कारण यह है करि उपमान में संज्ञा ( गवय ) ओर संज्ञी (गो सटृश पिरुड ) का सम्बन्ध होता है, उसी सम्बन्ध का बोध
कराना उपमान का काम है; उपाधि से रहित सम्बन्ध {= व्यापत्ति) का बोध कराना उसके लियं साघ्य नहीं ।
वि्ोष--उपमान का लक्षण तकंसंग्रह मे इस प्रकार किया गया है- (उपमितिकरणमुपमानम् । संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमितिः ।' ( प° १६ ) अर्थात् किसी वस्तु ( संज्ञी ) से उसके नाम ( संज्ञा ) का सम्बन्ध जानना उपमितिः कह- लाता है। इस उपमिति का करण ( = असाधारण कारण, साधन ) (उपमान कहलाता है । यहाँ करण का अभिभ्राय है सादृश्य-सम्बन्ध को जानना । कोई
व्यक्ति गवय को नहीं जानता किन्तु किसी जंगली आदमीसे सूुनताहै कि
“गवय! गौ के समान' होता है- वह वन में जाकर देवता है किं गौ के समान
ही कोई जीव चर रहाहै, वह् पहली बातको याद करके तुरत समन्न लेता
है कि वत्तंमान जीव गवय है । उपमान यही है-- यहां "गवय" संज्ञाया नाम है, गौ के समान पिरड' संज्ञी है अर्थात् उस परा्थं का बोध कराता है। उपमान संज्ञा ओर संज्ञोका सम्बन्ध मात्र बतलाता है, किसी इसरे सम्बन्ध को बतलने की शक्ति इसमे नहीं अतः व्याप्तिका ज्ञान कराना उसके लिए साघ्य नदीं क्योकि व्याति मे उपाधि-रहित सम्बन्ध का बोध होता है। इसी प्रकार अभावादि प्रमाण भी इस काममे सफल नहीं हो सकते क्योकि अभाव मतो केवल अभावकाज्ञान होगा उससे भिन्न ( व्यानि आदि) का ज्ञान वह् नहीं करा सकता ।
चावोकदशनम् १७ ( १०. व्याचिज्ञान का दूसरा उपाय भी नहीं है )
फ च-उपाध्यभावोऽपि दुरवगमः । उपाधीनां प्रत्यक्ष- त्वनियमासम्भवेन प्रत्यक्षाणामभावस्य प्रत्यक्षत्वेऽपि, अप्रत्यक्षा- णाममावस्य अग्रत्यक्षतयाऽलुमानादयपेक्षायायुक्तदृषणानति वृत्ते; । अपि च, साधनाव्यापकतवे सति साध्यसमव्याप्रिः" इति तद्क्षणं कक्षीकनतेन्यम् । तदुक्तम्-
इसके अलावे, यदि उपाधि के अभावं को[ व्याप्ति समच्नते है, तो उसे भी जानना कठिन ही है) इसका कारणा यह है कि सभौ उपाधिर्यां प्रत्यक्षं ही होगी" यह नियम रखना असंभव दहै; यद्यपि प्रव्यक्त वस्तुओं का अभावभी प्रत्यक्ष रूप से देवा जां सकता है, किन्तु अप्रत्यक्ष ( न दिखलाई पड्ने वाली ) वस्तुओं का अभवि मी अप्रत्यक्षही रहेगा (= क्िंसी वस्तु के अभावकाः ज्ञान तभी होता है जव उस वस्तु को जानते है--अभावज्ञानं प्रतियोगिज्ञान- सपिक्षम्--अर्थात् अभाव का ज्ञान अपने विरोधी = भावेकै ज्ञाने की अपेक्षाः रखता है ) । इसलिए [ अप्रत्यक्ष वस्तुओं के अभाव को जानने के लिए ] दूसरे प्रमारा--अनुमानादि-- की आवद्यकता होगी ओर तब फिर वही उपर्युक्तं (अनवस्था ) दोष आ जायगा जिसे हम हटा नहीं सकते । ( कहने का अभिप्रायं यह है--यदि व्याप्तिका लक्षण “उपाधिहीनता' हौ तो इसे सभी प्रकारकीः उपाधियों से रहित होना चाहिए । उपाधि का अभाव तभी जाना जा सकता है जब उपाधि का ज्ञान हो। उपाधियां सभी प्रत्यक्ष ही नहों रहतीं-- कुच द्रव्यरूप-धर्मी, कुछ ॒गुणादिरूप-धममं, कुछ मूतं, अमूतं, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष--इस प्रकार करई तरहकीहो सकटठी है। जेसा कि ऊपर कहं चुका हं कुच शङ्ज्ति ओौर निधितत भी होती है।. प्रत्यक्ष उपाधियों कां अभाव तो प्रत्यक्ष होगा, किन्तु अप्रत्यक्ष उपाधियों का अभाव अप्रत्यक्षही होगा। अप्रत्यक्ष कां ज्ञान अनुमानसे ही होगा ओर अनुमान मे उवाधि-हीन सम्बन्वं ( व्याति) की पुनः अपेक्षा होगी । फिर उस व्याप्ति के लिए तीसरा अनुमान भौर उस अनुमानके लिए पुनः व्याक्नि-इस प्रकार यह तकंन्पंखला अनन्तकाल तक चलती रहेगी ) ।
उपाधिका दूसरा लक्षण--इस्के अलावे [ दूसरा दोष भीहै--] उपाधि का यह लक्षण स्वीकार करना चाहिए-जो साधनं ( हेतु 2114616 पला) ) को सदा व्याप्त न करने पर भी साच्यं ( 18}०४ ९100 ) के साथ सम-व्याति रवे [ व्याप्तिदो प्रकार की होती है-सम ओौर विषम । दीनां वस्तुओं की व्यापि बराबर-बरावर रहने पर समब्याति होती है जैसे ( 1187 )
२ स सं
=== द. =
|
1
। ।
| ॥ | |
५:
|
।
१८ सवदशनसंग्रदे-
जौर ( 8008] ^. ४08] ) में । विषम व्याप्ति जैसे धूम ओर अत्रि मे-- यहाँ धूम के साथ अग्नि की व्यापि होने पर भो अनि के साथ धूम कौ व्याति नहीं है क्योकि धूम नहीं रहने पर भी अमि हो सकती है ] । एेसा कहा भी है--
विरोष-उपाधि का उपयुक्त लक्षण ही सभी न्याय-ग्रन्धों मे स्वीकृत किया गया है । भाषापरिच्छेद ( १३८ ) में कहा गया है--
साध्यस्य व्यापको यस्तु हेतोरव्यापकस्तथा ।
स॒ उपाधिभवेत्तस्य निष्कर्षोऽयं प्रद्यंते ॥ अर्थात् साष्यके रूप मे स्वीकृत वस्तुका जो व्यापक हो तथा साधन के रूप सें स्वीकृत वस्तु का व्यापक न हो वही उपाधि है ( मृक्तावली° ) । तकंसंग्रह मतो मानो माधवके शब्दही है ( प° १५ )}- साध्यव्यापकत्वे सति साध- नाव्यापकत्वमुपाधिः । साघ्यसमानाधिकरणात्यन्तामावप्रतियोगित्वं साध्यव्यापक त्वम् । साधनव्िष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं साधनाव्यापकत्वम् । यथा "पवतो धूम- वान्, व्लिमच्वात्' इत्यत्र आर्द्रेन्धनसंयोग उपाधिः । तथाहि, "यत्र धूमस्तत्राद्र- न्धनसंयोगः' इति साध्यव्यापकत्वम् । यत्र॒ वह्िस्तत्रारेन्धनसंयोगो नास्ति, अयोगोलके आद्रन्धनसंयोगाभावात्' इति साधनाग्यापकत्वम् । एवं साष्यन्याप- कत्वे सति साधनाग्यापकत्वात् आप्रेन्वनसंयोग उपाधिः ।' साध्य का व्यापक कोई तभी बन सकता है जब किं साध्य के समान आधार वाली वस्तु के अत्य- न्ताभाव का विरोषी हो, जेसे--
सभी वह्धिमान् पदां धूमवान् है,
पव॑त वद्भिमान् है, .". पर्वेत धूमवान् है,
इस अनुमान मे भीगी लकंड़ीसे संयोग" उपाधि है जो निष्कषंकोभी सोपाधिक ( (1000;0181 ) बना देती है । यह उपाधि श्रुमवान्" ( साघ्य 00830 पथ ) का व्यापक है कि जरा धूम होगा अभ्नि मे भीगी लकंडी का संयोग भौ अवर्य होगा । इस तरह उपाधि साघ्य का व्यापक होती है । साधन का अव्यापक कोई तब हो सकता है जब साधन ( हेतु 00016 एला) ) से युक्त वस्तु म रहने वाले के अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी हो जेसे उपयुक्त अनुमान में--जहा अनि है वहां भीगी लकड़ी नहीं होती, लोहे के गोले ( या बिजली ) मे भीगी लकड़ी नहीं रहती है'--इस प्रकार साधन ( वह्लिमान् ) म उपायि की अव्याप्ति रहती है। इसी लक्षण को आचार्यो ने कहाभीहै। स्मरणीय है कि उपाधियुक्त अनुमान मे व्याप्यत्वासिद्ध नामक हेत्वाभास होता है ।
चाबकदशेनम् १६
अव्याप्रसाधनो यः साध्यसमन्याध्रिरुच्यते स उपाधिः । शब्देऽनित्ये साध्ये सकतैकत्वं घटत्वमश्रवतां च ॥ ९ ॥ व्यावततेयितुपरुपात्तान्यत्र॒ क्रमतो विशेषणानि त्रीणि । तस्मादिदमनवद्यं समासमेत्यादिनोक्तमाचार्य्यश्च ॥१०॥ इति ।
जो(१) साधन को व्याप्तन करे, (२) साध्य को व्याप्त करे भौर (३) सष्यके समान व्याति रखे-उसे उपाधि कहते है। [ उपाधि के उपर्यक्त लक्षण में] तीन विशोषण इसलिए रखे गये है कि [ इनमें से प्रत्येकं के द्वारा ] शब्द को अनित्य सिद्ध करने के समय क्रमशः निन्नोक्तं तीन उपाधियां हटाई जायं --( १) कर्ता से युक्त होना, (२) षट होना, ( ३ ) श्रवणीय न होना । इसलिए यह निर्दोष ( लक्षण ) है ओौर आचार्यो ने भी 'समासमा' इत्यादि श्टोक के द्वारा कहा है ।
विरदोष-उपाधि के लक्षणा में तीन खरड है ओर इन खरडो में किसी एक के भी अभाव में दोष उत्पन्न होगा। तमो तो लक्षण की पूशंता समन्नी जायगी । हम यहाँ देखें कि केसे, किसके अमाव मे, कौन-सा दोष उत्पन्न होता है । एक अनुमान है--
सभी उत्पन्न वस्तुं अनित्य है, |
शब्द उत्पन्न होता है, | ( शब्दोऽनित्यः उत्पन्नत्वात् )
.`. शब्द अनित्य है, |
इस अनुमान मे अनित्यत्व' साध्य है, उत्पन्नत्व' साधन । हमे उपाधि के उपयुक्त लक्षण की परीक्षा इस अनुमान के आधार पर करनी है ।
सबसे पहले उपाधि के लक्षण से प्रथम विरोषण-साधन'व्यापकत्व--को हटा दे; बचा, “साघ्यव्याप्तिः उपाधिः" । अब ऊपर वाले शुद्ध अनुमान { अनौपाधिक ) मे इस लक्षण को लगने पर उपाधि निकल अवेगी- सकतृकत्व ( किन्तु पहले से वह अनुमान उपाधि-हीन है )। इसका कारण यह हैकि सकत्तकत्व के साथ अनित्यत्व (साघ्य) की व्यापकता है- सभी सकत्तक वस्तुं अनित्य है (इस प्रकार साध्यको व्याप्त करनेके कारण यह उपाधि हो गई )। किन्तु उपयुक्त अनुमान उपाधिहीन है, सकतृंकत्व' उपाधि उसमें आ न जाय, इसलिए “साधनाव्यापक '- यह विशेषण रखा गया । उसे रखने से सकतृंक' उपाधि नहीं आ सकती क्योकि सकर्तृंक' ( उपाधि } के साथ "उत्पन्नत्व' ( साधन ) की अब्यापकता नहीं, व्यापकता हीदहै; अतः उस अवस्था मे एेसौ किसी उपाधि को आने का अवसर नहीं मिलेगा ।
० सबेदशेनसं्रहे-
अब दूसरे विशेषण-साध्यव्यापकत्व-- पर आपत्ति आयी, इसे हटा द; वचा, अव्यापतसाधनः उपाधिः' । इस लक्षण को उक्त अनुमान मे लगने पर एक उपाधि निकल आती है--घटत्व । घटत्व ( उपाधि ) उत्पन्चत्व (साधन) का अव्यापक है वयोकरि जो घटत्व होगा वह तो उत्पन्न नहीं होगा ( इस प्रकार ताधन को अव्याप्त करने के कारण यह उपाधिं हौ गई )। “वटत्व' उपाधि का वारण करने के लिंए खाघ्यव्यापक"--यह् विशेषण दिया गया । उसे रखने से. टत्व' उपाधि नहीं आ सकती क्योकि शटत्व" (उपाधि) मे स्टय्र (अनित्यत्व) कोः व्यापतःकरने की शक्ति नहीं, चटत्व (जाति ) नित्य हे ।
इतने परर भी. 'अश्रावणत्व' उपाधि के आने का. अवकाश है यदि हम 'साघ्य-समर-व्यापतिः- यह विशेषण नहीं रखे । अश्रावणत्व ( उपाचि ) उपर्युक्त अनुमान के सावन ( उत्यन्नत्व ) को व्यापन नहीं करता ( साधनाग्यापकत्व सति ), ्योक्रि शब्द जैसी उत्पन्न होनेवाली वस्तुओं मे अध्रावणत्व का अभाव है ( अर्थात् श्रवणीयता ) । पुन, अश्रावणत्व ( उपाधि ) अपने साध्य ( अनित्यत्वं ) को व्याप्त कर लेता है । यहां अनित्यत्व का अभिप्राय समन्च- द्रव्यत्व-मात्र से व्याप्र ( अवच्छिन्न ) अनित्यत्व अर्थात् अनित्य कहलाने वाले सारे द्रव्य । किन्तु कुछ द्रव्य ( आत्मा, आकाश आदि }) नित्य है जिनमें भी अश्रावणत्व है इषलिए अश्वावरत्व' ( उपाधि ) [ द्रव्यत्व-मात्र से व्याप्त | अनित्यत्व के साथ समनव्याप्नि नहीं रखता ओर उपाधि के सपमे दिखलाई पडता है। यदि समव्याति होती तो उपाधि नहीं दिखलाई पडती । अतः उपायि के लक्षण मे तीसरे विशेषण साघ्यसमव्यात्ति- की भी आवडयकता है तभी अश्चवत्व-नामक उपाधि से बचे सक्ते हैँ ।
'समासमा' से पूरा यहं शयोक समञ्ष-
समासमाविना भावावेकत्र स्तो यदा तदा । समेने यदि नो व्याप्तस्तयोर्हीनोऽप्रयोजकंः ।)
यहे श्नोक श्रीहष-रचित 'खण्डन-लण्ड-लाद्य' की आनन्दपूरणीय-टोका मं अनुमान-खर्डन ( प° ७०७ ) के प्रकरण मे उद्धृत किया गया दहै! ऊपर कहा जा चुका हैकि व्यापिके दो भेद दहै-सम बौर असम । निरन्तर एक साथ रहने वाले दो पदार्थो की व्यापि समं कहलाती है जेसे--पृथिवी जौर गन्ध की । निरन्तरं एकं साथ नं रहनेवाले ( असमनियतयोः ) दो पदार्थो की व्याप्ति असम कहलाती है जेसे--अभ्नि ओर धूम कौ । आप्रैन्घनसंयोग ( उपाधि ) योग ओर अभि में असमन्याति असि मं अन्नि' असमयारहन तो, ेककां अथंहै किं जब
था @=च
, अ ` श, ॥ ् 9 >. ऋ । +. 9 ` = = क. ॥
चावबोकदशनम् प.
सम ओर असम दोनों व्यातं ( अविनाभाव ) एक स्थान पर हौ भिद्यमान हों ओर सम ( धूम) केद्वारा अम्नि (असम) व्याप्नन कियानजा सकेतो वह हीन व्याति वाला (अश्न) प्रयोजक नहीं होता अर्थात् धुमः रूपी साष्य का साधक (हेतु) नहीं बन सकता। किसी भी तरह, समनब्याप्ति की अनि- वायंता स्पष्ट है ।
( ११. भ्यातिज्ञान ओर उपाधिज्ञान मे अन्योन्याश्चय दोष ) तत्र विध्यध्यवसायपूवंकत्वान्निपेधाध्यवसायस्य उपाधि्गानें जाते तदमावविचशिष्टसम्बन्धरूपव्यापिज्ञानं, व्याधिज्ञानाधीनं चोपा- धिज्ञानमिति परस्पराश्रयवजग्रहारदोषो बज्रलेपायते ¦ तस्माद- विनाभावस्य दुर्बोधततया नानुमानाचयवकाश्चः ॥
विधि ( ^ #ीषणा्ष*€ ) का निश्वयहो जानेके बाद ही उसके निषेव ( ‰ 6९०४५४९ ) का निश्वय होता है, इसलिए उपाधिज्ञान ( विधि ) हो जने पर ही इसके निषेध (अभाव ) से युक्त सम्बन्ध वाली व्यापि का ज्ञान होता है ( = व्याति मे उपाधि का अभाव होना चाहिए इसलिए उपाधि का ज्ञान हो जाने केवादही व्याति का ज्ञान संभव है)। दूसरी ओर उपाधि का ज्ञान भी व्यातिज्ञानं पर निर्भर करता है (क्योंकि उपाचि के लक्षण में ही व्याति की बात आती है-- साघनाब्यापकत्वे सति साघ्यसमव्यापकः उपाधिः ) । इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष-रूपी वज्न-ब्रहार [ विरोधियों के मूख पर | वज्रलेप ( सिमट के पलस्तर } के समान द्डहो जातादहै। इस प्रकार अविनाभाव (ष्याति {10;56इ४् ?20]00अं ४० ) दुर्बेषि है ओर अनुमानादि प्रमाणो का कोई स्थान नहीं ।
( १२. लोकिक-व्यवहार ओर वस्तर्पं ) धृमादिज्ञानानन्तरमग्न्यादिज्ञने प्रवृत्तिः प्रतयक्षमूरतया भ्रान्त्या वा युज्यते । कचित्फरग्रतिलम्भस्तु मणिमन्त्रोषधादिवद् यादृच्छिकः । अतस्तत्साध्यमरष्टादिकमपि नास्ति । नन्वद््टा- नष्टो जगढचिव्यमाकस्मिकं स्यादिति चेत्-न तद्धदरम् । स्व- भावादेव तदुपपत्तेः ! तदुक्तम्-- ११. अग्नरुष्णो जलं शीतं समस्पशचस्तथानिलः ।
केनेदं चित्रितं तस्मात्स्वभावात्तद्व्यवस्थितिः ॥ इति । धूमादि जानने के बाद अग्न्यादि जाननेकी जो प्रवृत्तिं [ लोगों मेंदेखी
=
र भन न = 0) शी जोति क ॥ + =
व्यः स= दि का न जना जि ^ जानि कुट ---- ~~
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नर कलन
।
२२ सवैदशनसंग्रदे- जाती ] है वह यातो पूर्वकाल के प्रत्यक्ष पर अधारित है (= पहले अन्निको त्यक्ष रूप से देखा था, कु देर के बाद धुँ को देखने से संस्कार जग गया ओर मनुष्य अन्निको याद करते हृए प्रवृत्त होता है), या यहं बिल्कुल भ्रम है ( = धूम-अभ्नि के साहचयं से धूम को देखकर अभिका चम होता है) । कभी-कभी इससे फल की प्राप्ति हो जाती दै, वह तो मणि, मन्त्र, ओषध-आदि के समान स्वाभाविक है ( अर्थात् मणिस्परथं, मन्त्रप्रयोग ओौर ओषध-सेवन से कभी कायं होता है, कभी नहीं । कभी-कभी तो इनके बिना भौ कायं कौ सिद्धिदो जाती है। इसलिए अन्वय-व्यतिरेक की विधियो मे ठहर न सकने (ग्य भिचरित होने) के कारण इनमे काय॑-कारण-भाव ( (8 88] 16181070 ) नहीं है । रेश्वर्यादि की प्राति मशिस्प्चं से नही, स्वभावतः ही होती है । रोगादि निवृत्ति भौ कभी स्वभावतः, कभी किसी विशेष अन्नके खाने से होती है--इसमे ओौषधसेवन का क्या प्रयोजन है । फिर भी काकतालीयन्याय ( 00१९०४४] 0011161 १6१९९ ) से होने वाले कायं को देखकर लोग इनमें कायंकारणभाव मान लेते है । उसी तरह धूम ओर अभ्निमें भी कायंकारणभाव नहीं है, लोग मान लेते है ]। इसलिए उसका साध्य अदृष्ट-आादि कुछ नहीं । ( कुछ लोगों के अनुसार अच्छे गौर वुरे कर्मो से उत्पन्न, पूरय ओौर पापके रूप मे अदृष्ट रहता हि वही एवय देता है या रोग॒उत्पन्न करता है । इसे कमफल भी कहते है। रेश्वयदि कार्यौ को देखकर अदृष्ट-कारणा की सिद्धि होती है जेसे धूम से अभि । किन्तु जब अनुमान मानते ही नही, रेशर्यादि स्वाभाविक ही दै तब अदृष्-ह्पौ कारण रहेगा क्या खाकर ? ) अब, यदि प्रन करे कि अदृष्ट यदि नहींहै तो संसार की विचित्रतातो आकस्मिक हो जायगी ! नहीं, यह ठीक नहीं है--वह तो स्वभाव से ही सिदध है (8९-6ग १८४४) । कहा भी है--*अभ्नि उष्णा है, जल शीतल, वायु समशीतोष्णः; यह सब विचित्रता किसने की ? अपनी-अपनी प्रकृति से ही इनकी व्यवस्थायं हुई है ( १३. चावोक-मत-खार ) तदेतत्सवं बरहस्पतिनाप्युक्तम्- १२. न स्वरो नापवर्गो वा नैवात्मा पाररोकिकः । नैव वणाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः ॥ १३. अग्रिहोत्रं त्रयो बेदाखिदण्डं भस्मगुण्ठनम् । ुद्धिपोरुपहीनानां जीविका धातृनिर्मिता ॥
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चावोकदशेनम् २३
१४. पञ्चुश्वेनिहतः स्वगं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति। स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते ?॥
१५. भ्रृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेनि कारणम् । निवोणस्य प्रदीपस्य स्नेहः संवधेयेच्छिखाम् ॥
बृहस्पति ने भी यह सब कहाहै-न तो स्वगं है, न॒ अपवग ( मोक्ष) ओर न परलोक में रहने वाली आत्मा; वरणं, आश्वम आदि की क्रियाय भी फल देने वाली नहीं है ।॥ १२ ॥ अथिहोत्र, तीनों वेद, तीन दर्ड धारण करना ओर भस्म लगाना-ये बुद्धि ओौर पुरुषार्थं से रहित लोगों को जीविका के साधन जिन्हे ब्रह्मा ने बनाया ॥ १३॥ यदि ज्योतिष्टोम-यज्ञमे मारा गया पशु स्वगं जायगा, तो उस्र जगह पर यजमान अपने पिताको ही क्यों नहीं मार डालता ?॥ १४॥ मरे हृए प्रणियों को श्राद्धसे यदि तृत्ति भिलेतोबुञे हृए दीपक की शिखा को तो तेल अवदय ही बढ़ा देगा ।॥ १५ ॥१
~ ---~ ~~~ -- - ~~~ -~- ~~
१. तुलना कर -विष्णुपुराणा में चार्वाक-वरंन (३।१६।२५-२८), प° २७० नेतयुक्तिसहं वाक्यं हिसा धर्माय चेष्यते । हवीष्यनलदग्धानि फलायेत्य भकोदितम् ॥। यज्ञै रनेकैर्देवत्वमवप्ये्रेण भुज्यते । शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्र पत्रमुक्षशुः ॥। निहतस्य पशोयंज्ञे स्वगंप्राप्तियं दीप्यते । स्वपिता यजमानेन किन्नु तस्मान्न हन्यते ? ।। तृप्ये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेत्ततः । कुर्याच्छ्राद्धं श्चरमायान्नं न वहेयुः भ्रवासिनः ॥
हिसा से भी धमं होता दै-यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है। अभ्निमें हवि जलाने से फल होगा-- यह भौ बचोकीसी बात है । अनेक-यजञो के द्वारा देवत्व लाभ करके यदि इन्द्र को शमी आदि काष्ठका ही भोजन करना पड़ता है तो इससे तो पत्ते खाने वाला पशु ही अच्छाहै। यदि यज्ञमें बलि किये गये पशु को स्वगं की प्राति होती है तो यजमान अपने पिताकोही क्यों नहीं मार डालता ? यदि किसी अन्य पुरुष के भोजन करनेसे भौ किसी परुष की तृनि हो सकती है तो विदेश-यात्रा के समय खाद्य-पदाथे ले जाने का परिश्रम करने कौ क्या आवद्यकता है; पुत्रगंण घर षर ही श्राद्ध कर दिया करं ?""
२४ सवेदशेनसंग्रदे-
१६. गच्छतामिह जन्तूनां व्यथं : पाथेयकरपनम् । ` गेहस्थक्रतश्रादधेन पथि ` ठमिरबारिता ॥ १७. स्व्मस्थिता यदा त्वि गच्छेयुस्तत्र दानतः । प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते १॥ १८. यावज्ीषेत्सुखं जीवेदणं त्वा धतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं इतः १॥
१९. यदि गच्छेत्परं रोकं देहादेष वषिनिगेतः कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाङुलः १ ॥
[ विदेश ] जाने वले लोगों के लिए पाथेय ( मां का भोजन ) देना व्यथं है, घर में किये गये धाद्धसे ही रस्तेमें तृप्ति भिल जायगी १६॥ स्वं में स्थित ( पित्रगण ) यदि यहाँ दान करदेनेसेतृप्तहो जतिर्ह तो महल के ऊपर (कोठे पर) बेटे हए लोगों को यहीं पर क्यों नहीं दे देते है ? ॥१७।। जब तक जीना है सुल से जीना चाहिए, ऋण लेकर भी घी पीना चाहिए (विलास कर) क्योकि [ मरने पर ] भस्मकेरूपमें परिणत शरीर फिर [संसारमें ऋणशोध के लिए | कैसे आ सकता है ?॥ १८॥ [ यदि आत्मा शरीर से पृथक् है ओौर ] शरीर से निकल कर दूसरे लोक मे चला जाता है तब बन्धुं के प्रेम से व्याकुल होकर लौट क्यों नहीं जाता ?॥ १९॥
२०, ततश्च जीवनोपायो ब्राहमणेविंहितस्त्विह । मृतानां प्रेतकायणि न स्वन्यद्वि्ते कचित् ॥ 8 कत्ता उधृतेनिशा २१. त्रयो बेदस्य कत्तारो भण्डधृतेनिशाचराः जर्भरीतुफंरीत्यादि पण्डितानां वचः स्पृतम् ॥ २२. अधस्यात्र हि शिश्चं तु पलीग्ाह्यप्रकीतितम् । भण्डेस्तद्रत्परं चेव ग्राद्यजातं प्रकीतितम् ॥ मांसानां खादनं तद्रननिश्चाचरसमीरितम् ॥ इति ॥ तस्मा्रहूनां प्राणिनामलुग्रहाथं चाबोकमतमाश्रयणीयमिति रमणोयम् ॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदशच॑नसडग्रहे चाबाकदशेनम् ॥
--च्नक्ैल>--
चाबौकदशेनम् २५
इसलिए ब्राह्मणों के द्वारा बनाया हज यह जीविकोपाय है--मृत व्यक्तियों क सारे मरणोत्तर कायं; इसके अतिरिक्त ये सब कु नहीं ह ।॥ २० ॥ वेद के रचयिता तीन है-भांड, शृत्तं (ल्ग ) ओौर. राक्षस । “जभभेरी, तुफरी' आदि परिडतों की वाणी सम्॑षी जाती है॥ २१॥ इस ( अश्वमेध ) में घोडे के लिङ्धको पतनी द्वारा ग्रहण कराने का विधान है--यह सव ्रहणं करने का विधान भंडों का कहा हृजा है॥ २२॥ [यज्ञे] मांस खानाभी राक्षसो ( मास के प्रेमियों } का कटा हंजा है। इसलिए बहुत से प्रारियो के कल्याण के लिए चार्वाक-मत का आश्रय लेना चादिपए, यही अच्छा है। हस प्रकार सायण-माघव के बनाये हुए सवदन संग्रह मे चार्वाक-दर्यन समाप दुभा ॥ विरोष जर्भरी" से चार्वाकों का संकेत षेद के इस मन्त्र पर है- सुण्यव ज॒भरी तुफरीत् नेतोदोवं त्फ) परीका । ` उदन्यजेव जेम॑ना मदेरू ता मे जराय्वजरं मरायु ॥ ( १०।१०६।६ )
हे दोनों अश्िनीकरमार ! आप ( सृरयौ इव ) अंश के योग्य मत्त हाथी के समान ई, ( जभंरी ) शरीर को मुकानेवाले. है, ( तुफरीत् ) मारनेवाले है, ( नैतो्लौ इव ) अत्यन्त सन्तोषदाता पुरुष के पुत्रों के समान ( तुफंरी ) शत्रुओं के विनाशक ह ओर ( पफरीका ) धन से अरनेवाले है । ( उदन्यजोौ इव ) जल से उत्पन्न वस्तुओं से निर्मल है, ( जेमना ) विजय करनेवाले है, ( मदेरू ) मत्त यौ स्तवनीय ह ( ता=तौ) वे दोनों अधिनीकृमार (मे) मेरे (जरायु) वृढापे से युक्तं ( मरायु ) भरणंशीलं शरीर को (अजरं) जरामरण रहित करं दे । इति बालकविनोमाशङ्रेण रचितायां सबंददंनसङ प्रहस्य | प्रकाराख्यायां व्याख्यायां चार्वाकदश्ंनमवसितम् ॥
अश्र
८२ › बौदध-दशेनम्
शल्यं जगत् क्षणिकमात्रेमथाप्तदुःखं स्वस्येव लक्षणमयं तनुते स्वभावम् । दुःखादितत््वमखिलं च दिदेश देशे बुद्धाय शिष्यसदहिताय नमोऽस्तु तस्मे ।- ऋषिः ( १. चार्बाक-मत का खण्डन-व्यासि की खुगमता ) अत्र बौद्धैरमिधीयते-यदम्यधायि, अबिनाभावो दुर्बोध इति' तदसाधीयः । तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामबिनाभावस्य सुज्ञान- त्वात् । तदुक्तम्-
१ १. कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् । ॥॥ अतिनाभावनियमोऽदशेनानन न दशनात् ॥ ( प्र° बा० १।३३ ) । इति ।
॥. इस ( व्याति ) के विषय में बौद्ध लोग कहते है-[ चार्वाकों ने ] जो यहं
॥. कहा है कि अविनाभाव अर्थात् व्याति का ज्ञान नहीं हो सकता, वह ठीक ह ॥ ( सिद्ध, तकँसम्मत ) नहीं । व्याति का ज्ञान तो तादात्म्य ( दो वस्तुओं कौ | ॥ एकरूपता ) तथा तदुत्पत्ति ( कायं-कारण का सम्बन्ध ) से आसानी से हो सकता | ति है । यही कहा भी है--कायं-कारण के सम्बन्ध से अथवा नियम रखनेवले | । @ ( = साध्य-साधन का अव्यभिचार--साक्षात्सम्बन्व--सिद्ध करनेवाले ) स्वभाव ।॥ के द्वारा अविनाभाव ( व्याति) का निय होता है, अदर्थ॑न ( व्यत्रिरेक--एक || केन होने पर दूसरे कान होना) या दुन (अन्वय--एक के होने प्र दूसरे | का होना ) से नहीं ।' ( प्रमाण-वातिक में व्याप्िचिन्ता-परिच्छेद ( १।३३ ) में प या न्यायनबिन्दु मे भी यह् श्लोक मिलता है । दोनों ग्रन्थ वमंकोति के है) ।
विरोष-अविनाभाव व्याति का ही दूसरा नाम दहै। इसकी व्याख्या प्रमाणवातिक की स्ववृत्ति मे इस प्रकार है-- "कायस्य स्वभावस्य च लिङ्खस्या- ॥ विनाभावः = साध्यधमं विना न भवतीत्यथंः' ( पृ ८७ ) अर्थात् अविनाभाव = ॥ कार्यं ( तदुत्पत्ति ) ओौर स्वभाव ( तादात्म्य ) रूपी लिङ्ग का साध्यके बिना |, न देखा जाना । उपयुक्त इलोक मे धर्मकीति ने बौद्धो के अविनाभाव का निय
बोद्ध-दशेनम् २७
` करनेवाली दो विधियो ( तादास्म्य ओौर तदुरपत्ति ) का तो प्रतिपादन किया
ही है, साथ-साथ नैयायिको की व्याति का निश्चय करनेवाली अन्वय ओर
व्यतिरेक-विधियों का खरडन भी कर दियादहै। जो वस्तु क्रिसी दूसरी वस्तु की आत्मा ( आत्महूप ) ही है वह उसके निना केसे हो सकतो है ? इसलिए तादारम्य अर्थात् नियामक स्वभाव को अविनाभाव का कारणं बतलाया गया है, जेसे-शिशषा ओौर वृक्ष मे तादात्म्य है, शिंशपा वृक्षत्व से प्रथक् नहींजा सकता । कायं तो कारण के अधीन रहता है, कारण के बिना वहं सम्भव नही--अतः इससे भी ( दोनों विधियो से ) अविनाभाव का निश्चय होता है। इसे अगे स्पष्ट किया गया है, ( २. अन्वय-व्यतिरेक से व्या्िज्ञान सम्भव नहीं )
(अन्वयव्यतिरे्ो अविनाभावनिश्वायको' इति पक्षे साध्य- साधनयोरव्यभिचारो दुरबधारणो भवेत् । भूते भविष्यति वत माने चालुपलभ्यमानेऽ्े व्यभिचारशङ्काया अनिवारणात् । नु तथाविधस्थले तावकेऽपि मते व्यभिचारशङ्का दुष्परिहरा-- इति चेत् ; मैवं वोचः । विनापि कारणं कायगत्पद्यतामित्यवं विधायाः शङ्काया व्याघातावधिकतया निवृत्तत्वात् । तदेव दयाशङ्क्येत यस्मिननाशङक्यमाने व्याघातादयो नावतरेयुः ।
तदुक्तम्--व्याघातावधिराशङ्क' ( कुसु ° २।७ ) इति ॥
“अन्वय ओर ग्यतिरेक-विधियां अविनाभाव ( व्यापि) का निश्चय करती है" यदि [ तयायिकोंके ] इस पक्ष को स्वीकार करं तो साध्य ( }18}01 ४९० ) ओौर साधन ( हेतु, लिङ्ग 1110016 ० ) में कभी भी व्यभिचार ( पाथंक्य ) नहीं होगा, यह जानना बडा कठिन हो जायगा । इसका कारण यह है कि [ यद्यपि सन्निहित वतंमानकाल मे हम साष्य-सषन का सम्बन्ध स्थिर कर सकते है किन्तु ] भूतकाल, भविष्यत्काल या अनुपस्थित अथं ( वस्तु ) वाले वतंमानकाल में व्यभिचार कौ शङ्खा हटाई नहीं जा सकती ( सामने अये हुए वतं मानकाल में व्यभिचार नहीं हो सकता क्रिन्तु दूरके काल में सघ्य- साधन का सम्बध नहीं मी रह सकता है ) 1
[ नैयायिक लोग पूच सकते ह कि | ठेसी स्थिति मे ( भूत, भविष्य ओर दूरवर्ती वर्तमानकाल के विषय में प्रश्न उठाने पर ) आप [ बद्धो ] के मत मं मी तो व्यभिचार ( साध्य-साधन के नित्य सम्बन्ध में व्यवधान ) होने की
र सबेदशेनसंम्रहे-
शङ्का रहती ही है, उसे बचाना बड़ा कठिन है। एेसा प्रश्न होने पर [ हमार उत्तर होगाकरि | एेसे मत कटो, क्योकि कारण के बिना भी कायं उत्पन्न हो जायगा" इस प्रकार कौ शङ्का होने से उसकी निवृत्ति व्याघात ( विपरीत उदाहरण, रुकावट; (07118 11318006 ) मिल जाने पर हो ही जायगी ( व्याघात हो जाने से शङ्काका अवकाश नहीं रहता )। कारण यहदहैकि शङ्का ठेसी ही करं जिससे व्याघात इत्यादि न मिलं। [ उदयनाचायं ने] कहा भी है- व्याघात के प्राप्त होने के समय तक ही आश्षङ्का बनी रहती है" ( न्या० करु०° ३।७ } )
विरोष- किसी अनुमानमे व्याति की आवद्यकता होती है, जबतक साध्य ओर साधनम स्थायी सम्बन्ध न दिखलाया जाय, अनुमान हो नहीं सक्ता । पक्ष ( पवंत ) मे साध्य (अचि) को सिद्ध करने के लिए साध्य ( अच्नि ) ओौर साधनया हेतु ( धूम) मे व्याति दिखलानी पड़ती है। व्याप्ति को जानने के लिए नैयायिकों के यहाँ दो विधियां है-(१) अन्वय | & | ( 21610०4 ° ^+ ए!ल्लणल४ ) भौर (२) व्यतिरेक ( 1611004 भ | # 104्प्ल८९ ) उदाहरणतः, ( १ ) अन्वय-विधि-जहां-जहां ( जैसे--रसोई । ॥ घर, कारखाना, चूल्हा आदिमे ) धरम है, वहां अभिटै। इस तरह विशिष्ट उदाहरण में धूम देखकर असनि की सत्ता जानकर दोनों के व्याप्ति-सम्बन्ध को अन्वय-विधि से जानते है । (२) व्यतिरेक विधि--जहां-जहाँं अभि नहींहै ( जेसे श्लील, मेदान, नदी, बगीचा आदिमे) वर्हा-वहाँ धूम नहीं है। अतः, एकैके अभाव वाले उदाहरणोमे दूसरेका भी अभाव देखकर दोनोका ॥ कायं-कारण सम्बन्ध जान लेना व्यतिरेक-विधि है। पाश्वाच्य तकँःशास्र ॥| | (आगमन ) मे का्यं-कारण सम्बन्य स्थापित करने के पाच नियम् है- ॥ 8 (१) 216० ग ^हष्टलफलप, ( साहचयं की विधि) (२) ॥१ 21९1164 ० ` {21161६८6 ( मेद-विधि ) ( ३ ) 4०१४४ 216५1५4 ग ति & 16611611 871५ 1){8६16९6, ( साहृचयं ओर भेद की संयुक्त-विधि )
ह ( ४) {€ -ज (-छप्टनापाप्क्प + 8119४00 ( सहचारी विकार-
| विधि ) ( ५ ) 21९०१ ग {छ त९ ( अवशेष-विधि }--इनकी जानकारी ॥ | | के लिए किसी तकशा ( आगमन } की पुस्तक को देका जाय ।
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बौद लोग उपयुक्त दोनों विधियों को इसलिए नहीं मानते किं इनसे | समीपवर्ती वतमान कालमें देखे गये उदाहरणों का पता भले लग सके किन्तु ॥ ` कालान्तर ओर देशान्तर मे विद्यमान पदार्थोकी व्यापत्तितो नहींहो सकती । ॥ कमी न कभी धूम ओर अच्िमे व्यभिचार ( पाथैक्य) हो ही जायगा- सी ' संभावना है ( सहचार = साघ्य-साधन का नियत संबंध, व्यभिचार = दोनों का
शि ऋ भ क (ने ५८१ क अ. क म व । |
जके
बौद्ध-दशेनम् २६
अलग हो जाना) ] इस प्रकार डविडह्युम के संशयवाद ( 3080८) ) न परवेद किया जां सकता ह। इससे बौद्ध लोगों ने तादात्म्य ओौर तदृतपत्ति कोही व्यापिका साधन माना है। इससे भी निस्तार नहीं है। जो आक्षेप बौद्ध लोग तैयायिकों पर लगाते ह वही आक्षेप बौद्धो पर भौ लग सकता ह। तदृत्पत्ति ओौरं तादात्म्य के द्वारा व्याति जाननेमे भौ साध्यसाधन के संबन्ध- विच्छेद की संभावना है ।
, ; -क्नतु बौद्ध लोग इस संश्यवादी भ्रम को जड़ हाथों तेते ह । तकं ओर व्याघात का आश्रय लेकर शंकाओंको दूर कियाजा सक्तादहै। तकंका अभिप्राय है विरोधी वाक्य को असिद्ध सिद्ध करना जेसे--सभी धूमवान् पदार्थं अ्रियक्त है" यदि वाक्यं ठीक नहीं तो इसका विरोधो ( (*01 18416005 ) वाक्य ककुद ` धूमवान् पदाथं अशियुक्त है" अवदय सत्य टै । इसका अथं है किं अभ्निकेबिना भी धूमो सकता है (विनापि कारणं कायंमृत्पद्यताम् )। लेकिन सामान्य काय॑-कारण-सिद्धान्त ( {101१९३५॥ (६ 8101.) से उपर्युक्तं तथ्य खंडित हो जायगा । अथं यह होगा कि िनाकारणके भी कायं होने लग जायगा ( स्मरणीय है कि ध्रुमका एक मात्र कारण अभ्िदहीदरै), यदि कोई हपू्वंक यह कहना शुरू कर दे कि कारण के विना कयं होता हैतो यह् व्यावहारिक असंगति ( व्याघात {५९४८8 । कछऽपोता षष ) हो जायगी । यदि कार्यं कारण के बिनाहोताही रै तो रसोई बनानेके लिए आग की क्या आवदयकता ? इस प्रकार व्याघात होने तकं ही शंका रहती है । अपनी क्रिया के व्याघात से व्यभिचार कौ शंका नहीं उठती । इस विधि को पाश्चात्य तर्कशाल्रमे {२९१०९६१० ४१ अएश्प्वप्ा) ( व्यावहारिक अंसगति दिखाना } कहते है जिसमे विरोधी वाक्य को मिथ्या सिद्ध कर देते है ।
उदयनाचायं की कुसुमांजलि में निश्नलिखित शयोक है-- शङ्का चेदनुमास्त्येव न चेच्छा ततस्तराम् । व्याघातावधिराशङ्का तकं: शङ्कावधिमंतः ॥ ( व्या० कु° ३।७ ) ( अनुमा = अनुमान )। यह अनुमान को सिद्ध करने वाली कारका है ‰# जिसमे अनुमान से व्यभिचार की चका का सम्बन्ध बतलाया गया है। शंका हौ या नही, अनुमान दोनों स्थितियों भें है। यदि शंका ( = देशान्तर या कालान्तर मे साघ्य-साधन के बीच उपाधि या व्यभिचार होने की आशंका ) रहेतोभी अनुमान सिद्ध होता है वयोकि अनुमान-प्रमाणसे ही उपाविया व्यभिचार का ज्ञान होता है ( भवे ही इसके लिए दूसरे अनुमान को आकवद्यकता ह, पर वह हैतो अनुमानही न?) अगर शंका नहींहो तवतो ओरभी
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३० स्वदशेनसंमदे-
आनंद, क्योकि अबतो शंकादूर करने की भी जरूरतनहींहै। शंकाकी अवधितकंकोहीमाना गयादहै। पकंशंकाका निवतंकदटै। इसे हम ऊपर देष चुके हैँ । लेकिन तकंमें भी व्याति की आवद्यकता पड़ेगी ओर फिर दसरा तकं खोजना पडेगा जिससे अनवस्था-ोष ( ‰ ४६ पपनाध्प्ा) 84 10001. प ) उत्पन्न हो जायगा । इसलिए ष्याघात ( व्यावहारिक असंगति ) का आश्रय लेना पडेगा । तकंमूल व्यातिमें ज अपनी क्रिया का व्याघात या असंगति अवेगी तब व्यभिचार-्ंका समाप्त हो जायगी-पूनः दूसरे तकं कौ आवद्यकता नहीं । इसलिए शंका कौ अवधि व्याघातदहै। शंका तभी तकदहै जब तक व्याघात नहीं मिलता ।
( ३. तदुत्पत्ति से अविनाभाव का ज्ञान-पंचकारणी )
तस्मात्तदुत्पत्तिनिश्वयेनाविनाभावो निश्चीयते । तदुत्पत्ति- निश्चयश्च कायेहेत्वोः प्रतयक्षोपलम्भानुपलम्भपश्चकनिबन्धनः । कारयस्योत्पत्तेः प्रागलुपलम्भः, कारणोपलम्भे सति उपलम्भः, उपरब्धस्य पश्चात्कारणानुपलम्भादनुपलम्भः इति पश्चकारण्या धूमधृमध्वजयोः कायेकारणभावो निश्चीयते ॥
इसलिए तदुत्पत्ति ( कायं-कारण-संबंध ) के निश्वयके द्वारा अविनाभाव ( व्याति ) का निश्वय होता है । तदत्पत्ति का निश्चय कायं ओौर हेतु ( कारण ) के प्रत्यक्ष उपलम्म ( प्राति ) ओर अनुपलम्भ ( अप्राप्ति ) रूपी पाच [ अवयवो | पर निभैर करताहै। (दो बार उपलम्भ ओर तीन बार अनुपलम्भ )। धूम ओर धरमध्वज ( अच्नि) में कायं-कारण-सम्बन्ध इन पांच कारणों की समन्विति से निधित किया जाता है-( १) उत्पत्ति होने के पहले कायं का नहीं प्राप्त होना, (२) कारण की प्रापि होने पर,(३) [कायंका] प्राप्त होना । ( ४) [ कायं ] प्राप्त होने के बादकारणका प्राप्त नहीं होना ओौर जिसके फलस्वरूप ( ५) [ कायं का | प्राप्त नहीं होना ।
विरोष-बौद्धों ने अन्वय-व्यतिरेक की विधियो को ही तोड़-मोड़कर पंचकारणी-विधि का निर्माण कियादहै। वसी कोई इसमे नवीनक्षा नहीं
मिलती । कायं ओरकारण की अप्राप्ति ओर प्राप्ति--दोनों से पांच अवयव
( (णण ४५४०08 ) निकाले गये है । अप्राप्ति से तीन अवयव ओर प्रात्तिसे दो। इन पाचों को भिलानेके बाद दही कायं-कारण का निणेय होता है, पृथक्- पृथक् नहीं । इहं इस प्रकार समभ--
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` चावौकदशेनम् ३१
अनुपलम्भ उपलम्भ
( १ ) उत्पत्ति के पूवं कार्यानुपलम्भ
( ४ ) कारणानुपलम्भ होने पर- (२) कारणोपलम्भ होनेपर- ( ५ ) कार्यानूपलम्भ । ( ३ ) कार्यपिलम्भ,
हम देखते ह कि ८१) [ धूम की ] उत्पत्ति होने के पहले धूम का ज्ञान नहीं होता, भव (२) असिदेख रहेैतो (३) धूमकामी ज्ञान होताहै। धूभकाज्ञान हो जाने पर जब (४) अम्मि की सत्ता नहीं रहे तो वेस अवस्था में ( ५) धूम की भी सत्ता मिट जाती है । इन पांच अवस्थाओं से पार करने के बाद धृम-धूमध्वज ( अमन ) में कायकारण का निर्धारण हो जाता है।
( ४. तादात्म्य से अविनाभाव का ज्ञान ) तथा तादात्म्यनिश्चयेनाप्यविनाभावो निश्चीयते । यदि
चक्चपा बृक्षत्वमतिपतेत्, स्वात्मानमेव जघ्यादिति विपक्षे वाधक प्रवृत्तेः । अप्रवृत्ते तु बाधके भूयः सह भावोपलम्भेऽपि व्यभिचार शङ्कायाः को निवारयिता १ शिश्चपाबृक्षयोश्च तादात्म्यनिश्वयो शृक्षोऽयं शिपेति, सामानाधिकरण्यबरादु पपद्यते । न द्यत्यन्ता- भेदे तत्संभवति । पयायत्वेन युगपत्प्रयोगायोगात् । नाप्यत्य- न्ताभेदे, गवाश्चयोरनुपलम्भात् । तस्मात्कायौत्मानो कारणा- त्मानौ अनुमापयत इति सिद्धम् ॥
इसी प्रकार तादात्म्य का निश्चय करने के बाद भी अविनाभाव का निश्चय होता है । [ उदाहरण स्वरूप, “शिंशपा वृक्ष है" इस उदाहरण मे शशपा ओौर वक्ष में तादात्म्य-सम्बन्ध है, दोनों की आत्मा, आधार या धमं एक ही-वृक्षत्व- है । शिंशपा में मी वृक्षत्व ( ब्रृक्ष का सामान्य धमं ) है ओौरवृक्षमें भी। दोनों के सामान्य धमंएक हीह]! यदि इस प्रकार विरोधी वाक्य ( विपक्ष-वाक्य ) कहा जाय क्रि यदि शिशपा वृक्षत्व का अतिक्रमण कर दिया जाय ( =उससे पृथक् हो )' तो बाधक -वाक्य ( असंगति ) कौ प्रवृत्ति हो जायगी कि तत्र तो यह ( शि्यपा ) अपनी आत्माया सामन्यधमंकोही छोड़ देगा । अभिप्राय यह है कि तादात्म्य सम्बन्ध दिखाने वाले वाक्य “शिशपा के धमं वृक्षके धमै का विपक्षी-वाक्य "शिंशपा वृक्ष नहीं है" रखने पर असंगति हो जायगी तब तो
शिहपा का अपना धमं मी साथ नहीं देगा-अतः तादात्म्य द्वारा अविनाभाव स्वीकार करना ही पडेगा । ] यदि देवात् असंगति ( बाधक ) न भी अवि ओर
३२ स्बदशनसं्रहे- `
॥॥ | पुनः सहचार ( सदा साथ रहना } का उपलम्म (प्राति) भौ हो तो व्यभिचार | कीशंका को कौन बचा सकताहै?
। शिशपा ओौर व्क मे तादात्म्य-संवंध का निश्चय समानाधिकरणता के बल
| से सिद्ध होता है । ( समानाधिकरण -एक ही आधार होना, जसे शिशपा ओर
। वृक्ष दोनों का अधिकरण वृक्षत्व है ) कि, "यह वृक्ष शिशपा है" । तादारम्य-संबंघ
च | दो पदार्थो के अत्यन्तं अभेद ( एक ही पदार्थं का बोधकं ) होने पर संभव नहीं
| | है । [ जैसे-"यह वट-चट है" इस उदाहरण मेँ दोनों पृथक् नही है ओर इसलिए]
पर्यायवाची होने के कारण दोनो का एक साथ प्रयोग नहींहोौ सकता ( यह्
| घट-बट है" का प्रयोग नहीं हो सकता }। ओौर न दोनों के अत्यन्त-भेद ( एक
दूसरे से प्रथक् होना ( }1घ१०९। €०।पऽंए ) होने पर ही यह संभव है
कोक वसी दशाम "गौ.अध्वदहै' [ इसका प्रयोग होने लगेगा | जो प्राप्त ( संगत ) नहीं । | |
इसलिए यह सिद्ध हआ कि कायं ( कायकारण संबंधवसे ) तथा मात्मा
( तादात्म्य संबंध से ) क्रमशः कारण ओर आत्मा का अनुमान करते हँ ( कायं
से कारण का अनुमान. तदुत्पत्ति द्वारा ओर आत्माका अनुमान तादात्म्य
दवारा होता है)
| विक्लेष--तादास्म्य का अथं दहै उसके स्वल्पमें रहना, दो वस्तुओं का अभेद संबंध । जव दो वस्तुओं में घमं समान रहता है जेसे-नर ओर प्राणी | म श्राित्व' तो दोनों के बीच तादात्म्य संबंध समञ्चा जाता है) इसका दूसरा 8 द्योतक शब्द है सामानाधिकररय-एकं ही आधार परं टिका रहना, एक विभक्ति | म ही रहना जैसे-- वृक्षोऽयं शिशपा । शाब्दिक दृष्टि से यहाँ वृक्ष ओर शिंशपा में समानाधिकरणता { समविभक्तितव ) है किन्तु अर्थंदृष्टि से दोनों मे वृक्षत्व" नामक सामान्य धमं होने से तादात्म्य-संबंध है 1 तादात्म्य-संबंध न तो दी पदार्थो बे अत्यन्त भेद होने पर ही हो सकता है ( जैसे -'अश्वोभ्यं महिषः नहीं कहं सकते यद्यपि दोनों मे “पदुत्व' सामान्य-धमं है ) ओौर न अत्यन्त अभेद ही रहने पर ( जेसे-- अश्वोऽयं घोटकः" नहीं कह सकते क्योकि दोनों पर्याय ही है] । | स्मरणीय है कि केवल बौद्ध लोग दी तादारम्य हारा अविनाभाव स्थापित करने की चेष्ठा करते है ।
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| ( ५. अनुमान का खण्डन करने बालौ को उत्तर )
। यदि कधितप्रामाण्यमनुमानस्य नाङ्गीकयात्त प्रति ब्रूयात्-- |
अनुमानं प्रमाणं न भवतीत्येतावन्मात्रसुच्यते, तत्र न किंचन
बौद्ध-दशेनम् ३३
साधनयुपन्यस्यते, उपन्यस्यते वा १ न प्रथमः। अशिरस्क- वचनस्योपन्यासे साध्यासिद्धेः ।
एकाकिनी प्रतिज्ञा हि प्रतिज्ञातं न साधयेत् । इति न्यायात् । नापि चरमः। अनुमानं प्रमाणं न भव्रतीति ब्रुवाणेन वचनप्रमाणमनभ्युपगच्छता त्वया स्वपरकीयशाे प्रामाण्येनोप्हीतस्य वचनस्योपन्यासे मम माता बन्ध्येतिवद्
ज्याघातापातात् ॥
यदि [ इतना होने पर भी ] कोई ध्यक्ति अनुमान-प्रमारा की प्रामाणिकतां स्वीकार नहीं करता है तो उससे इस प्रकार [ द्विविधाटमक [17070810 ] प्रन पूं -- “माप केवल "अनुमान प्रमाण नहीं है इतना भर कहते है, इसमें कोई हेतु ( साधन, प्रमाणा ) उपस्थित नहीं करते ह या करते ह ?" (१) यदि पहली बात [ पर अइते हैँ तो ] ठीक नहीं । [ किस सिद्धान्त को बिना कारण के रखने मे | बिना सिरया हेतु के वाक्य उपस्थापित करने में साष्य ( 11907 1601 ) कौ सिद्धि होगी ही नहीं। ( अनुमान में किसी वाक्य को निगमन में रखने के लिए उचित भौर उपाधिहीन हतु कौ भावश्यकता है, उसके नहीं रहने से अनुमान नहीं होगा । पव॑त मे अग्नि ( साध्य ) सिद्ध करने के लिए उसमें धुमवत्व ( हेतु, साधन ) रना ही पडेगा । अशिरस्क-वचन = बिना साधन का वाक्य, अप्रामाणिक बात )। न्याय (उक्ति) भी है-- अकेली प्रतिज्ञा ( स्वीकृति ) स्वीकृत वस्तु को सिद्ध नहीं करती" ( = केवल सिद्धान्त रख देने से कि अनुमान रमाणा नहीं है यह सिद्ध नहीं हो जायगा प्रत्युत इसके लिए साधन देना पडेगा + यदि साधन नहीं देते तो आपकी यह बात गलत हो जायगी कि अनुमान प्रमाण नहीं है अर्थात अनुमान को आप भी प्रमाण स्वीकृत करेगे । )
(२) दूसरा पक्ष [किं अनुमान को प्रमाणं न मानने के लिए साधन देना चादिए- यह ] मौ ठोक नहीं। कारणं यह है किं जब आपलोग कहते है 'अनुमान प्रमाण नहीं होता .है' तब तो वचन (= शब्द-प्रमाणा ) को मी स्वीकार नहीं ही करते है ( वयोकि अनुमान-प्रमारा मानने के बाद ही आप्त-पुरुषो को बात--शब्द-प्रमाण को स्वीकृत कर सकते हँ ) । दूसरी ओर आपकी स्थिति है किं अपने से भिन्न दसरो के शाख्नो में प्रमारा-रूप से स्वीकृत वचन" या शब्दप्रमाण का उपयोग कर रहे हँ (यदि आप अनुमान को प्रमाण नहीं मानकर कख साधन देते हतो दुसरोंकी लीक पर चलने का दोषारोपण आप पर होगा । कम से कम न्याया की विधि को प्रामाणिक
३ स सं
३४ सब्रेदशनसंम्रहे-
मान्ता होगा ओौर उसकरी, बातों को यथावबु ` स्वीकार. करना ` शब्द-प्रमाण को मानना है ) । एेसा करने पर व्यावहारिक धृंगति होगी जसौ भरी माता वन्या है" इस वाक्य में होती है। (अभिप्राय यह् है करि यदि माता हैतो वन्या नही, यदि वचया | है तौ मता नहीं । दोनों कौ स्थिति, एकं दशा में असम्भवे है । उसी: त्रकार अनुमानं को प्रमाणं नहीं मानते तो शब्द को भी नहीं मानना होगा-लेकित्ः ये पूवंपक्षी-चार्वाक आदि--अनुमान की प्रामाणिकता काटने केलिए ओौर भी बड़ प्रमाण--्रव्यक्ष.से दुर भरमाण--रब्द का जान लेते है, यह व्यावहारिक असंगति है )। . स फं च प्रमाणतदामासव्यवस्थापनं तत्समानजातीयत्वा-
दिति वदता भवतेव स्वीकृतं स्वमाबादुसानम् । परगता विप्रतिपतिस्त॒ वचनलिङ्नेति वुबता कायलिङ्गकमनुमानम् । अनुपरग्ध्या कञ्चिदथं प्रतिपेधयताडुपलन्धिरिङ्गकमडमानम् । तथा चोक्तं तथागतेः-- ` | कः
२. प्रमाणान्तरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः ।
. प्रमाणान्तरसद्धाबः. प्रतिपेधाच्च कस्यचित् ॥ इति । < पराक्रान्तं चात्र घरिभिरिति ग्रन्थभूयस्त्वभयादु रम्यते | -यही नही, [ तीन तरह के अनुमान तो आपं स्वयं स्वीकार करते हं । | रमाणं ओर प्रमालाभास कौ व्यवस्था उसके समानजातीय होने के कारण होती है--यह कंते हृए आप ही स्वभावानुमान को स्वीकार करते है । ( प्रमाण गौर प्रमाणाभास कौ व्यवस्था--राह म जाते हए जब जल दिखलाई पडता है तब यह जलज्ञान प्रमाण है कि प्रमाणाभास, एेसा सन्देह होता है! अगर ठीक निकला त्तो प्रमाण मानेंगे क्योकि यथार्थानुभवः भ्रमा, ओर प्रमायाः करणं प्रमाणम्" 1 यदि जल नहीं मिला तो प्रमाणाभास मानेगे । यह निर्णय कैसे करेगे ? विधि स्वभावानुमान की होगी ओौर साधन रहेगा समानजातीयत्व । ( १ ) प्रमाण-जवब एक बार एसा ज्ञात हुजा था तब उसमे जल निकला था, इस बार भी उसी तरह का या समानजातीय ज्ञान ह, यह जलज्ञान भी परमाण दै। यह निश्चय स्वभावानुमान से आप करते (2 दूसरी ओर, ( २) भरमाणाभास~-जव एक बार एेसा ज्ञान हृभा था तो जल नहीं मिला था, इस बार भी सजातीय होने से जल नहीं मिलेगा--अतः यह मी प्रमाणाभास है। यहां भी. स्वभावानुमान की आवश्यकता पड़ । स्व्ावानुमान में पक्ष, साघ्य ओर लिग तथा तीन अवयव-वाक्य रहते है । )
-चौद्ध-दशेनम् ३४ . -दूसरे, चिरोधियों की विपरीत. सम्मतिः ( विरूढ सिद्धान्तं या ज्ञान ) का ज्ञान उनके वचन-रूपी लिंग या साधन से होता हैः यह् कहकर [ जाप | कायं करो देवकर कारण को जाननेवाला “कायंलिगक' अनुमान भी स्वीकार करते ह । [ अभिप्राय यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने ज्ञान के अनुसार ही बोलता ह । ज्ञान कारण ह ओर उसके वचन कायं ।. चार्वाक लोग परपक्षियों के शब्दों को सुनकर उनकी मान्यताओं का अनुमान कर लेते है। यह भी अनुमान ही हुआ, भले ही इसमे कायं ( वचन ) लिग या हेतुंका काम कर रहा है 1 विपशक्षियों की विप्रतिपत्ति ( विरुद सिद्धान्त ) साध्य है } ] तीसरे, जब आप किषी वस्तु की अनुपलब्धि या असाव देखते ह तथा उघके आधार पर किसी पदार्थं की सत्ता का निषेध करते है ( जेसे--आकाश-
तस्व, आत्मा, मोक्ष, परलोक आदि का), तो यहाँ मो जाप अनुमान का सहार
ले रहे ह जिसका लिङ्ख है अभाव। (अभाव के आधार पर ही अप इन वस्तुओं का निषेध करते है । फिर अनुमान को खरिडत करनेमेंतुक ही क्या रहा ? जब तीन-तीन प्रकार के अनुमान अपप धड़ाघड़ दे रहे है.फिर कंसे कहते है कि अनुमान दहैही नहीं?) ।
इसलिए तथागत ( बुद्ध ) के अनुयायियों ने कहा है-( १ } इसरे प्रमाण ( अनुमान ) मे सामान्य ( समान जातीयता ) की स्थिति होने के कारण, (२) द्सरे की सम्मतिमें गति या उसका अनुमान करने के कारण तथा ( ३ ) किसी के प्रतिषेध के कारण-- दुसरे अनुमान प्रमाण की सत्ता [ स्वीकार
करनी पड़ती ] है । ऊपर कहे तीनों प्रकार के अनुमानों का संग्रह इस लोक में
हआ है । ) इस विषय षर विद्टानों ने बहुत विचार-विमश्ं किया है इसलिए यहाँ ग्रन्थ बडाहोजानेकेभयसे रुका जाय । ( ६. बौद्धदरीन के चार भेद्-भावना-चतुष्टय )
ते च बौद्धाश्वतुर्विधया भावनया परमयपुरुषाथं कथयन्ति । ते च साध्यमिक-योगाचार-सोत्रान्तिक-बेभाषिकसंज्ञाभिः प्रसिद्धा बौद्धा यथाक्रमं सर्वशून्यत्व-बाह्याथ्न्यत्व-बाह्याथोयुमेयत्व- बाद्या्थप्रतयक्षत्ववादानातिष्ठन्ते । यद्यपि भगवान्बुद्ध एक एव बोधयिता तथापि बोद्धव्यानां बुद्विभेदाचचातुर्विध्यम् । यथा 'गतोऽस्तमकंः इत्युक्ते जारचोरानूचानादयः स्वेष्टादुसारेणा- भिसरणपरस्वहरणसदाचरणादिसमयं बुध्यन्ते . ।. सवं क्षणिकं
३६ सवेदशनसंभरदे- क्षणिकं,